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________________ पउमचरियं [३. १५७बहुगाम-नयर-पट्टण-आरामुज्जाण-काणणसमिद्धा । मणि-रयण-कञ्चणुजल-जलन्तघरनिवहपन्तीओ॥ १५७॥ वरमहिसि-गाइपउरो, बहुविहधण्णेण मणहरालोओ। सबोसहिसंपन्नो, महु-खीर-घएण पंज्झरिओ ॥ १५८ ॥ अइउण्ह-सीयरहिओ, उवधायविवजिओ पयइसोमो। नज्जइ य देवलोओ, देसो विज्जाहराइण्णो ॥ १५९ ॥ रविकिरणकोमलाहय-वियसियवरकमलसरिसवयणाओ। विज्जाहरजुवईओ, बहुविहलायण्णकलियाओ॥ १६०॥ विज्जाहरा उ तत्थ वि, विजाबलदप्पगबिया सूरा। देवा व देवलोए, भुञ्जन्ति जहिच्छिए भोए ॥ १६१ ॥ एवंविहा उभयसेढिगया महन्ता, आहार-पाण-सयणा-ऽऽसणसंपउत्ता । विज्जाहरा अणुहबन्ति सुहं समिद्धं, धम्म करिन्ति विमलं च जिणोवइ8 ॥ १६२ ॥ ॥ इति पउमचरिए विज्जाहरलोगवण्णणो नाम तइओ उद्देसओ समत्तो॥ ४. लोगट्टिइ-उसभ-माहणाहियारो अह भयवं तित्थयरो, झाणं मोत्तूण दाणधम्म? । विहरेऊण पबत्ती, नगरा-ऽऽगरमण्डियं वसुहं ॥१॥ पउमेसु संचरन्तो, गयपुरनयरं कमेण संपत्तो। बहुगुणसयाण निलओ, वसइ निवो जत्थ सेयंसो ॥२॥ मज्झण्हदेसयाले, गोयरचरियाएँ अभिगओ नयरं । घरपन्ती' भमन्तो, दिट्रो लोगेण तित्थयरो ॥३॥ प्रकाशित प्रतीत होती थीं और अनेक गाँव, शहर, पट्टन, बाग-बगीचे तथा वनोंसे वह प्रदेश समृद्ध था। (१५७ ) वह देश उत्तम गाय व भैंसों से प्रचुर था, अनेक प्रकारके धान्योंके कारण वह देखने में सुन्दर मालूम होता था, वह सब प्रकारको औषधियोंसे समृद्ध था तथा शहद, दूध व घी तो उसमें मानो बह रहे थे । ( १५८ ) वह अत्युष्णता एवं तिशीतसे रहित अर्थात समशीतोष्ण था; अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि किसी भी प्रकारके उपद्रवका उसमें नितान्त अभाव था, प्रकृतिसे वह प्रदेश सौम्य धा-इस प्रकार विद्याधरोंसे व्याप्त उस देशको देवलोक ही जानना चाहिए। (१५९) सूर्यकी कोमल किरणोंके स्पर्शसे विकसित होनेवाले उत्तम कमलोंके सदृश मुखवाली तथा अनेकविध लावण्योंसे युक्त यहाँको विद्याधर-युवतियाँ थीं। (१६०) यहाँके विद्याधर भी बल एवं विद्याके अभिमानसे गर्विष्ट थे और जिस प्रकारके भोग देवलोकमें देव भोगते हैं ये उसी प्रकारके यथेच्छ भोगोंका उपभोग करते थे। (१६१) इस प्रकारके दोनों श्रेणियोंमें रहे हुए महिमाशाली विद्याधर आहार, पान, शयन एवं आसनसे युक्त होकर सुख-समृद्धि का अनुभव करते थे तथा जिनोपदिष्ट विमल धर्मका आचरण करते थे। ॥ षद्मचरितमें विद्याधरलोकवर्णन नामका तृतीय उद्देशक समाप्त हुआ । ४. लोकस्थिति, ऋषभ एवं ब्राह्मण अधिकार तब तोथकर भगवान् ऋषभदेव ध्यानका परित्याग करके दान धर्मके प्रचारार्थ नगर एवं खदानोंसे मण्डित वसुधातल पर विहार करने लगे। (१) पद्मों में विचरण करते हुए वे क्रमशः गजपुर हस्तिनापुर ) नामक नगरमें पहुँचे। उसमें सैकड़ों गुणोंका आस्थान रूप श्रेयांस राजा रहता था। (२) ठोक दोपहरके समय गोचरी (आहार) के लिये भगवान्ने नगरको ओर प्रस्थान किया। लोगोंने उन्हें मकानोंको कतारों के बीच में परिभ्रमण करते देखा । (३) उनका मुख चन्द्रके समान - १. मणहरधण्णेण-प्रत्य० । २. पज्वलिओ-प्रत्य।। ३. ज्ञायते । ४. इव। ५. विचरण के समय देव तीर्थकरके पैरोंके नीचे स्वर्ण-कमल का निर्माण करते हैं। वे उनपर पैर रखकर विहार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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