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________________ ३. १५६] ३. विजाहरलोगवण्णणं ताहे वक्कलचीवर-कुसपत्तनियंसणा फलाहारा । सच्छन्दमइवियप्पा, बहुभेया तावसा जाया ॥ १४३ ॥ विद्याधराणामुत्पत्तिः ताव य जिणस्स पासे, पत्ता नमि-विणमि भोगवरकडी । काऊण सिरपणाम, पायभासे सुहनिविद्या ॥ १४४ ॥ भोगसमुहाण ताणं, धरणिन्दो आसणे तओ चलिए। सबपरिवारसहिओ, सो वि तहिं चेव संपत्तो ॥ १४५ ॥ नमिऊण पायकमले, उवविट्ठो जिणवरस्स आसन्ने । पेच्छइ तरुणजुवाणे, 'दोण्णि जणे पकयदलच्छे ॥ १४६ ॥ अह भणइ नागराया, भो भो ! तुम्हेत्थ किंनिमित्तेणं । असिलट्ठिगहियहत्था, उभओ वि ठिया जिणसयासे? ॥१४॥ तो भणइ नमी वयणं, अम्हं नत्थेत्थ रायवरलच्छी। एयनिमित्तं च पहू !, जिणस्स पासं समल्लीणा ॥ १४८ ॥ एवं च भणियमेते, धरणेणं तस्स बलसमिद्धाओ। दिन्नाओ तक्खणं चिय, विज्जाओऽणेयरूवाओ ॥ १४९ ॥ उवइट्टो य नगवरो, वेयड्डो ताण उत्तमो वासो । पन्नास जोयणाई, विन्थिण्णो सुद्धरययमओ ॥ १५० ॥ उबिद्धो पणवीसा, दोसु य सेढी उभयओ रम्मो। छज्जोयणाइँ धरणिं, कोसो च्चिय होइ उबेहो ॥ १५१ ॥ दक्खिणसेढी गन्तुं, रहनेउरचक्कवालपमुहाइं । पन्नास पुरवराई, कयाइँ नमिखेयरिन्देण ॥ १५२ ॥ अह गयणवल्लहपुरं, उत्तरसेढीएँ [विणमि विक्खायं । वरभवण-तुङ्गतोरण-बहुजिणहरमण्डियं च कयं ॥ १५३ ॥ तत्तो य दसगमित्ता, उवरिं गन्धब-किन्नराईणं । वरभवणमण्डियाई, किंपुरिसाणं च नयराइं ॥ १५४ ॥ उवरिं तओ वि गन्तुं, पञ्चऽन्ने जोयणे सिहरपट्ट । जिणभवणेसु मणहरं, उन्भासेन्तं दस दिसाओ ॥ १५५ ॥ भवणेसु तेसु निययं, चारणसमणा वसन्ति गुणवन्ता । सज्झाय-झाणनिरया, तवतेयसिरी' दिप्पन्ता ॥ १५६ ॥ वल्कल, चीवर, कुश एवं पत्तोंको बनके तौर पर धारण करनेवाले, फलाहारी, और अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार दूसरे अनेक विकल्प करनेवाले तापस हुए। उनके अनेक भेद थे। (१४३) ऋषभदेवके पौत्र नमि-विनमिका आगमन और विद्याधर लोकका वर्णन इसके पश्चात् उत्तम भोगोंके आकांक्षी नमि और विनमि भगवानके पास आए और सिरसे प्रणाम करके उनके पैरोंके समीप आरामसे बैठे। (१४४) चूंकि भोगोंकी ओर वे उन्मुख थे इसलिये धरणेन्द्रका प्रासन कम्पित हुआ। वह भी अपने समग्र परिवारके साथ वहाँ उपस्थित हुआ। (१४५) भगवान्के चरणकमलमें वन्दना करके वह उनके समीप जाकर बैठा। वहाँ उसने कमलके सदृश विशाल नेत्रोंवाले दो तरुण युवानोंको देखा। (१४६) इन्द्रने पूछा-'तुम दोनों यहाँ भगवान के समक्ष हाथमें तलवार लिए क्यों बैठो हो? (१४७) इस पर नमिने जवाब दिया-'हमें उत्तम राजलक्ष्मी नहीं मिली है। इसलिये हम जिनेश्वर भगवान के पास आए हैं।(१४८) उसके इस प्रकार कहने पर धरणेन्द्रने तत्काल ही अनेक तरहको बल पवं समृद्धिकी विद्याएँ उन्हें प्रदान की। (१४९) उसने उन्हें उत्तम निवासके लिये शुद्ध रजतसे निर्मित तथा पचास योजन विस्तृत वैताव्य पर्वत दिया। (१५०) दोनों ओर सुन्दर यह पर्वत पचीस-पचीस योजनकी दो श्रेणियों में फैला हुआ था। पृथ्वीमें यह छः योजन गहरा तथा एक कोस ऊँचा था। (१५१) दक्षिण श्रेणीमें जाकर नमि विद्याधरने रथनुपूर, चक्रवाल आदि पचास नगरीका निर्माण किया। (१५२) उत्तरश्रेणीमें गगनवल्लभ नामका एक नगर विख्यात है। वह उत्तम भवन, ऊचे-ऊँचे तोरण तथा अनेक जिनमन्दिरोंसे शोभित था । (१५३) उसके दस योजन ऊपर ही गन्धर्व, किन्नर एवं किंपुरुषों के उत्तमोत्तम भवनोंसे अलंकृत नगर बसे हुए थे। (१५४ ) इनके भी ऊपर पाँच योजन जाने पर अनेक जिनमन्दिरोंसे सुशोभित तथा दसों दिशाओंको उद्भासित करनेवाला शिखरका पृष्ठ भाग आता है। (१५५) वहाँ पर भवनों में गुणी, स्वाध्याय एवं ध्यानमें निरत तथा तपके तेज एवं कान्तिसे देदीप्यमान चारण श्रमण रहते हैं। (१५६) वहाँ घरोंकी पंक्तियाँ मणि, रत्न एवं कांचनसे समुज्ज्वल तथा १. दो वि जणे-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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