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पउमचरियं
[३. १२९एए भमन्ति जीवा, पुणरुत्तं जम्मसायरे भीमे । निणवयणपोयलग्गा, तरन्तु मा णे चिरावेहि ॥ १२९॥ एवं दढववसायस्स तस्स निक्खमणकारणे देवा । तुरियं च समणुपत्ता, सुरिन्दपमुहा चउवियप्पा ॥ १३० ॥ नमिऊण जिणवरिन्दं. जयसद्दाला य सहरिसं तुट्टा। धय-छत्त-चारुचामर-चलन्तकरपल्लवसणाहा ।। १३१ ।। वजिन्दनील मरगय-चन्दणमणिखचियकणयपरिवेद । आरुहइ सुरसमाहिय-खन्धं तु सुदंसणं सिबियं ॥ १३२ ॥ अह निग्गओ महप्पा, नयराओ 'सुर-नरिन्दपरिकिण्णो। तूरसहस्ससमाहय-बन्दियणुग्धुट्ठजयसद्दो ॥ १३३ ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोग-पुन्नाग-नागमुसमिद्ध। पत्तो पवरुज्जाणं, वसन्ततिलयं ति नामेणं ॥ १३४ ॥ आपूच्छिऊण सर्व, माया-पिय-पुत्त-सयण-परिवगं । तो मुयइ भूसणाई, कडिसुत्तय-कडय-वत्थाई ॥ १३५ ॥ सिद्धाण नमुकारं, काऊण य पञ्चमुट्ठियं लोयं । चउहि सहस्सेहि समं, पत्तो य जिणो परमदिक्खं ॥ १३६ ॥ वजाउहो वि ताहे, केसे मणिपडलयम्मि घेत्तूणं । काऊग सिरपणामं, खीरसमुद्दम्मि पक्खिवइ ॥ १३७ ।। निक्खमणमहामहिम, देवा काऊण सुरवरसमग्गा । नमिऊण जिणवरिन्द, गया य निययाइँ ठाणाई ॥ १३८ ।। चउहि सहस्सेहि समं, समणाणं जिणवरो महाभागो । गहिउववासो विहरइ, वमुहं संवच्छरं धीरो ॥ १३९ ।। केएत्थ पढममासे, बीए तइए उ जाव छम्मासे । परिसहभडेहि ताव य, भग्गा समणा अपरिसेसा ॥ १४ ॥ भरहस्स भएण घरं, न एन्ति तण्हाछुहाकिलन्ता वि । लज्जाए गारवेण य, ताहे रण्णं परिवसन्ति ॥ १४१ ॥ अह ते छुहाकिलन्ता, फलाइँ गिण्हन्ति पायवगणेसु । अम्बरतलम्मि घुटुं, मा गेण्हह समणरूवेण ॥ १४२ ॥
परिभ्रमण करते रहते हैं। जिन-वचनरूपी नौकाका आश्रय लेकर वे जीव इसे तैर जाएँ। हमारी यही प्रार्थना है कि आप विलम्ब न करें। (१२९) इस प्रकार अपने निश्चयमें दृढ़ उनके महाभिनिष्क्रमणके लिये इन्द्र सहित चारों प्रकारके देव वहाँ शीघ्र ही उपस्थित हुए। (१३०) जिनवरेन्द्रको प्रणाम करके हृष्ट एवं तुष्ट वे देव 'जय जय' शब्द का उच्चार करने लगे और पल्लव सदृश कोमल उनके हाथ ध्वजा, छत्र व सुन्दर चामर इधर-उधर घुमाने लगे । (१३१) सोनेसे मढ़ी हुई तथा हीरे, इन्द्रनीलमणि, चन्दन एवं मणियोंसे खचित तथा देवताओं द्वारा कन्धे पर उठाई गई सुदर्शनीय शिविकामें भगवान् बैठे । (१३२) देवों एवं राजाओंसे घिरे हुए वे महात्मा नगर से निकले। उस समय हजारों वाद्य बज रहे थे तथा बन्दीजन जयघोष कर रहे थे। (१३३) बकुल, तिलक, चम्पक, अशोक, पुन्नाग एवं नाग जैसे सुन्दर वृक्षोंसे अत्यन्त समृद्ध 'वसन्ततिलक' नामक उत्कृष्ट उद्यानमें वे पहुँचे । (१३४) माता, पिता, पुत्र, स्वजन तथा परिजन आदि सबसे अनुमति लेकर उन्होंने आभूषणोंका तथा करधौनी, कटक एवं वस्रोंका परित्याग किया। (१३.) सिद्धोंको नमस्कार करके तथा पंचमुष्टिक लोंच करके चार सहन दूसरे अनुगामियोंके साथ उन्होंने जैन दीक्षा अंगीकार की। (१३६) इन्द्रने भो उनके बाल मणियाँस विभूषित एक वस्त्रमें ले लिया। बादमें मस्तकसे प्रणाम करके उसने वे बाल क्षीरसमुद्र में डाल दिए। (१३७) सभी मनुष्योंके साथ देव भी निष्क्रमणके इस महान् अवसरका उद्यापन करके और जिनवरेन्द्रको वन्दन करके अपने-अपने स्थान को चले गए। (१३८) तापसोंकी उत्पत्ति
चार हजार मुनियोंके साथ महाभाग्यशाली एवं धीर जिनेश्वग्ने उपवास ग्रहण करके एक वर्ष पर्यन्त वसुधातल पर विहार किया । (१३९) परिषहरूपी योद्धाके दवावके कारण उन मुनियोंमेंसे कुछकी पहले महीने में, कुछकी दूसरे, कुछकी तीसरे, इस प्रकार छः मासके भीतर तो सबकी हिम्मत टूट गई । (१४०) भूख एवं प्याससे पीड़ित होने पर भी वे भरतके भयसे अपने-अपने घर पर न गए; लज्जा तथा मानवश उन्होंने अरण्यमें प्रवेश किया। (१४१) क्षुधासे पीड़ित वे जैसे ही वृक्षों परसे फल लेने लगे वैसे ही आकाशवाणी हुई कि-'श्रमणवेष धारण करके इन्हें मत लो।' (१४२) तब
१. सुरवरिंद-प्रत्यः। २. सौधर्मेन्द्रः । ३. नरवर-मु.।
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