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३. २३]
३. विनाहरलोगवण्णणं गन्तूण देवनिलय, सुरवइ निणिऊण समरमज्झम्मि । दढकढिणनियलबद्धो, पवेसिओ चारगेहम्मि ॥ ११ ॥ सवत्थसत्थकुसलो, छम्मासं सुयइ कुम्भकण्णो वि । कह वाणरेहि बद्धो, सेउ च्चिय सायरजलम्मि ॥ १२ ॥ भयवं ! कुणह पसायं, कहेह तच्चत्थहेतुसंजुतं । संदेहअन्धयारं, नाणुज्जोएण नासेह ॥ १३ ॥ तो भणइ गणहरिन्दो, सुणेहि नरवसह ! दिन्नकण्णमणो । जह केवलीण सिटुं, अहमवि तुम्हें परिकहेमि ॥१४॥ न य रक्खसो ति भण्णइ. दसाणणो णेय आमिसाहारो। अलियं ति सबमेयं, भणन्ति नं कुकइणो मूढा ॥१५॥ न य पीढबन्धरहियं, कहिज्जमाणं पि देइ भावत्थं । पत्थिव ! हीणं च पुणो, वयणमिणं छिन्नमूलं व ॥ १६ ॥ पढम खेत्तविभागं, कालविभागं च तत्थ वण्णेहं । महइमहापुरिसाण य, चरियं च नहक्कम सुणसु ॥ १७ ॥ लोकःअत्थि अणन्ताणन्तं, आगासं तस्स मज्झयारम्मि । लोओ अणाइनिहणो, तिभेयभिन्नो हवइ निचो ॥ १८ ॥ वेत्तासणसरिसो च्चिय, अह लोगो चेव होइ नायबो। झल्लरिसमो य मझे, उवरिं पुण मुरयसंठाणो ॥ १९ ॥ सबो य तालसरिसो. तीसु य वलएसु होइ परिणद्धो। मज्झम्मि तिरियलोओ. सायरदीवेसु बहएस ॥ २० ॥ जम्बुद्वीपः, तद्गतक्षेत्रादितम्स वि य मज्झदेसे. जम्बुद्दीवो य दप्पणायारो। एक्कं च सयसहस्सं. जोयणसंखापमाणेणं ॥ २१ ॥ सो य पुण सबओ चिय, लवणसमुद्देण संपरिक्खित्तो । पउमवरवेइयाए. दारेसु समुज्जलसिरीओ॥ २२
मज्झम्मि मन्दरगिरी, चउकाणणमण्डिओ रयणचित्तो । नवनउइ सहस्साई. समुस्सिओ दस य विस्थिणो ॥२३॥ इन्द्रको पराजित करके तथा उसे मजबूत शृङ्खलासे बाँधकर रावण कैसे उसे कारागृहमें डाल सका ? (११) सभी शाखों में
शल होने पर भी कुम्भकणे छ: मास तक कैसे सोया करता था ? बन्दर सागरके ऊपर कैये सेतु बाँध सके ? (१२) हे भगवन् ! मुझ पर अनुग्रह करो और जो सत्य हो वह दलीलके साथ कहो और इस प्रकार मेरे संदेहरूपो अन्धकारको अपने ज्ञानरूपी प्रकाशले दूर करो।” (१३)
राजाके ऐसा पूछनेपर गणधरोंमें इन्द्र के तुल्य गौतम कहने लगे हे नरेन्द्र ! कान लगाकर तुम सुनो। कवलीने जैसा कहा है वैसा ही मैं तुझसे कहता हूं। (१०) दशानन (रावण) न तो राक्षस था और न मांसभक्षो ही था। मूख कुकवियों ने जो कुछ कहा है वह सब मिथ्या है। (१५) हे राजन् ! प्रातावनाके बिना जो कुछ कहा जाता है उससे अर्थको प्रतीति नहीं होती। छिन्नमूल वृक्षकी भाँति ऐसा कथन नष्ट (निरुपयोगी) हो जाता है। (१६) मैं प्रथम क्षेत्र एवं ालका विभाग और उसके बाद महापुरुषोंका चरित कहूंगा। तुम इसे.यथाक्रम सुनो। (१७) लोकवर्णन
आकाश अनन्तानन्त है। उसके मध्यमें अनादिनिधन लोक आया है। इसके सर्वदासे तीन विभाग हैं। (१३) वेत्रासनके समान अधोलोक, झालरके समान मध्यलोक तथा ऊपर मुरज (मृदंग) के आकारका स्वर्गलोक है-इस प्रकार लोकके तीन विभाग हैं जो ज्ञातव्य हैं। (१९) यह समप्र लोक ताल के समान है और तीन वलयोंसे घिरा हुआ है। इसके मध्यमें अनेक सागर एवं द्वीपोंवाला तिर्यगलोक है। (२०) उसके भी मध्य भागमें दर्पणके आकारका जम्बूद्वीप आया है। उसका परिमाण एक लाग्य योजन जितना है। (२१) यह जम्बूद्वीप भी चारों ओर लवण समदसे घिरा हुआ है। इसके प्राकारके दरवाजोंमें आई हुई पद्मवरवेदिकाओंसे यह उज्ज्वल कान्तिवाला प्रतीत होता है। (२२) इसके मध्य में मन्दराचल पर्वत आया है। वह चार वनोंसे शोभित, रत्नोंके कारण देदीप्यमान, निन्नानवे हजार योजन ऊँचा और दस योजन चौड़ा है। नीचे जमीनके भीतर एक हजार योजनतक गहरा और वज्रपटलसे जुड़ा हुआ है, ऊपर अपने
१. सायरवराम-प्रत्य० । २. केवलिना। ३. तत्थ वि-प्रत्य।
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