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________________ पउमचरियं [३. २४नोयणसहस्समेगं, अहोगओ वजषडलमल्लीणो। उवरिं च चूलियाए, सोहम्मं चेव फुसमाणो ॥ २४ ॥ छच्चेव य वासहरा, वासा सत्तेव होन्ति नायबा । चोदस महानईओ, नाभिगिरी चेव चत्तारि ॥ २५ ॥ वीसं वक्खारगिरी, चोनीस हवन्ति रायहाणीओ। वेयवपबया विय, चोत्तीसं चेव नायबा ॥ २६ ॥ अट्ठ य सट्टीओ तह, गुहाण सीहासणाण पुण तीसं । उत्तर-देवकुरूणं, मज्झे वरपायवे दिवे ॥ २७ ॥ दो कञ्चणकूडसया, छ च्चेव दहा हवन्ति नायबा । चित-विचित्ता य दुवे, जमलगिरी होन्ति दो चेव ॥ २८ ॥ छ भोगभूमिभागा, वरपायवमण्डिया मणभिरामा । एएमु य ठाणेसु, हवन्ति जिगचेइयघराई ॥ २९ ॥ अह एत्तो लवणजले, दीवा चत्तारि होन्ति नायबा । जिणचेइएसु' रम्मा, भोगेण य दिबलोगसमा ॥ ३० ॥ जम्बुद्दीवे भरहस्स दक्खिणे रक्खसाण दीवोऽस्थि । दीवो गन्धबाणं, अवरेण ठिओ विदेहस्स ॥ ३१ ॥ तत्तो एरवयस्स य, किन्नरदीवो उ होइ उत्तरओ। पुबविदेहस्स पुणो, पुबेण ठिओ वरुणदीवो ॥ ३२ ॥ काल:भरहेरवएमु तहा, हाणी वुड्डी य होइ नायबा । सेसेसु होइ कालो, खेत्तेमु अवढिओ निच्चं ॥ ३३ ॥ जम्बुद्दीवाहिवई, अणाढिओ सुरवरो महडीओ। देवसहस्ससमग्गो, सामित्तं कुणइ सबसि ॥ ३४ ॥ आसि पुरा भरहमिणं, उत्तरकुरुसरिसभोगसंपुण्णं । वरकप्परुक्खपउरं, सुसमासुसमासु अइरम्म ॥ ३५ ॥ . तिण्णेव गाउयाई, उच्चत्तं ताण होइ मणुयाणं । चउरंसं संठाणं, आउठिई तिण्णि पल्लाई ॥ ३६ ॥ शिखरसे वह सौधर्म देवलोकको छूता है। (२३-२४) उसमें छः वर्षधर पर्वत, उनसे विभक्त सात क्षेत्र', चौदह महानदियाँ, चार नाभिगिरि, बीस वक्षस्कार गिरि, चौंतीस राजधानियाँ और चौंतीस वैताह्य पर्वत हैं । (२५-२६) उसमें अड़सठ गुफाएँ तथा उत्तरकुरु एवं देवकुरुके मध्यमें अवस्थित एक उत्तम व दिव्य वृक्षके नीचे तीस सिंहासन आए हैं। (२७) उसमें दो सौ कंचनकूट, छ: झीलें और दो चित्र-विचित्र यमलगिरि आए हैं। (२८) उसमें सुन्दर तथा उत्तम वृक्षोंसे मण्डित भोगभूमियोंके छः विभाग हैं और इन विभागों में जिनमन्दिर आए हैं। (२९) लवण समुद्र में आये हुए चार द्वीपोंके बारेमें भी जानना चाहिए। वे जिनमन्दिरोंसे रम्य हैं और भोगोंकी दृष्टिसे स्वर्गके समान हैं। (३०) जम्वृद्वीपमें आए हुए भरत-क्षेत्रके दक्षिणमें राक्षसोंका एक द्वीप और विदेह-क्षेत्रके पश्चिममें गन्धर्वोका एक द्वीप आया है । (३१) उसके आगे ऐरावत क्षेत्रके उत्तरमें एक किन्नरद्वीपआया है तथा पूर्वविदेहके पूर्वमें वरुणद्वीप अवस्थित है। (३२). भरत तथा ऐरावत इन दो क्षेत्रों में कालकी हानि-वृद्धि (उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी) होती रहती है, किन्तु अवशिष्ट क्षेत्रों में वह सर्वदा स्थिर होता है । (३३) हजारों देवताओंसे युक्त तथा अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न अनादृत नामक जम्बूद्वीपाधिपति देव सबके ऊपर राज्य करता है । (३४) पहले सुषमासुषमा कालमें यह भरत क्षेत्र उत्तरकुरुके समान अत्यन्त रम्य, उत्तम कल्पवृक्षोंसे व्याप्त तथा सुख-समृद्धिसे परिपूर्ण था । (३५) उन दिनों मनुष्योंकी ऊँचाई तीन कोस जितनी, संस्थान चतुरस्र तथा आयु तीन पल्योपम' वर्पकी होती थी । (३६) त्रुटितांग ( वाद्य देनेवाला), भोजनांग (भोजन देनेवाला), विभूषणांग (आभूषण १. चेइएहि-प्रत्य० । २. देवलोक प्रत्य० । ३. भरत, हेमवत आदि क्षेत्रों को एक दूसरे से विभक्त करनेवाले और पूर्व-पश्चिम फैले हुए हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी, ये छः वर्षधर पर्वत हैं। ४. उपर्युक्त वर्षधर पर्वतों द्वारा विभक्त भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यक्त और ऐरावत ये सात क्षेत्र जम्बूद्वीपमें हैं। ५. गजदन्तके आकारका पर्वत । ६. पलथी लगाकर बैठेनेपर दोनों कन्धों, दोनों घुटनों तथा कन्धों और घुटनों के वीचका अन्तर समान हो तो उसे समचतुरस्र कहते हैं। संस्थानका अर्थ है आकार अथवा शरीर-रचना। इस तरह समचतुरस्त्र संस्थानका सामान्य अर्थ होता है शरीरको अत्यन्त शुभ और समतुल रचना । ७. एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा गड्ढा खोदकर वह सूक्ष्मतम बालों के छोटेसे छोटे टुकड़ोंसे भरा जाय। फिर प्रत्येक सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक टुकड़ा निकालनेपर जितने समयमें वह गड्ढा खाली हो उतने समयको एक पल्योपम कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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