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________________ पउमचरियं [२. ३१तस्स य बहुगुणकलिया, भज्जा तिसल ति रूवसंपन्ना । तीए गन्मम्मि जिणो, आयाओ चरिमसमयम्मि ॥ २२ ॥ आसणकम्पेण सुरा, मुणिऊण जिणेसरं समुप्पन्नं । सबे वि समुच्चलिया, परिओमुन्भिन्नरोमचा ॥ २३ ॥ आगन्तूण य नयरे, गन्धोदयवारिवरिसणं काउं। घेत्तण जिणवरिन्द, मन्दरसिहरम्मि संपत्ता ॥ २४ ॥ ठविऊण पण्डुकम्बल-सिलाएँ सीहासणे मणिविचित्ते । अभिसिञ्चन्ति सुरिन्दा, खीरोदहिवारिकलसेहिं ॥ २५ ॥ आकम्पिओ य जेणं. मेरू अङ्गटएण लीलाए। तेणेह महावीरो. नामं सि कर्य सरिन्देहिं ॥ २६ ॥ नमिऊण जिणवरिन्द, थोऊण पयाहिणं च काऊणं। पुणरवि माउसयासे, ठवेन्ति देवा तिलोयगुरुं ॥ २७ ॥ सुरवइदिन्नाहारो, अङ्गट्टयअमयलेवलेहेणं । ' उम्मुक्कबालभावो, तीसइवरिसो जिणो जाओ ॥ २८ ॥ वीरस्य प्रव्रज्या, ज्ञानं, अतिशयाश्चअह अन्नया कयाई, संवेगंगओ जिणो मुणियदोसो। लोगन्तियपरिकिण्णो, पबज्जमुवागओ वोरो ॥ २९ ॥ अह अट्टकम्मरहियस्स तस्स झाणोवओगजुत्तस्स । सयलजगुज्जोयगरं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥ ३० ॥ रुहिरं खीरसवण्णं, मलसेयविवज्जियं सुरभिगन्धं । देहं सलक्खणगुणं, रविष्पमं चेव अइविमलं ॥ ३१ ॥ उत्तम सिद्धार्थ नामक राजा राज्य करता था । (२१) उसकी अनेक गुणोंसे युक्त तथा रूपवती त्रिशला नामकी भार्या थी। पूर्वजन्म पूर्ण होने पर जिन (महावीर) उसके गर्भमें आये। (२२) आसनकम्प द्वारा जिनेश्वरका जन्म हुआ है ऐसा जानकर और इसीलिए आनन्दसे पुलकित होकर सब देव चल पड़े। (२३) कुण्डग्राम नगरमें आकर उन्होंने सुगन्धित जलकी वृष्टि की। बादमें जिनवरेन्द्रको लेकर वे देव मेम्पर्वतके शिखर पर गये और पाण्डुकम्बल शलाके ऊपर मणियोंसे देदीप्यमान सिंहासन पर भगवान्को स्थापित करके क्षीरोदधिके जलसे भरे हुए कलशोंसे उनका अभिषेक करने लगे। (२४-२५) मेरुपर्वतको अपने अंगूठेसे क्रीड़ामात्रमें उन्होंने हिला दिया था इसीलिए सुरेन्द्रोंने उनका नाम महावीर रखा। (२६) जिनेन्द्र महावीरको वन्दन, स्तुति एवं प्रदक्षिणा करके देव वापस लौटे और तीनों लोकोंके गुरु जैसे भगवानको पुनः माताके समीप रखा । (२७) इन्द्र के द्वारा दिये गये आहारसे तथा अंगूठे पर किये गये अमृतके लेपके चूसनेसे धीरे-धीरे बालभावका त्याग करके जिन तीस वर्षकी अवस्थाके हुए । (२८) संसारके दोषोंको जाननेवाले और इसीलिए विरक्त लोकान्तिक देवताओंसे ३ घिरे हुए जिनेश्वर महावीरने एक दिन दीक्षा लो। (२६) बादमें ध्यानोपयोगमें लीन उन्हें आठ कोका क्षय होने पर समग्र जगत्को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (३०) उनका रुधिर दुधके समान श्वेत था। उनकी देह मैल और पसीनेसे रहित थी, उसमेंसे सुगन्ध आ रही थी, सामुद्रिक शास्त्रमें वर्णित सुन्दर लक्षणोंसे वह युक्त थी तथा अत्यन्त निर्मल थी। (३१) १. संवेगपरो मु०। २. अष्टकर्माहस्य (१)। अत्राचार्यस्य प्रमादः प्रतिभाति, केवलज्ञानोत्पत्तिसमये चतुःकर्मसंभवाल्-सं० । ३. ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्गलोकमें रहनेवाले देव । तीर्थकरके महाभिनिष्कमणके समय उनके सामने उपस्थित होकर 'मह बुजमह' शब्द द्वारा प्रतिबोध करनेका उनका आचार है। ४.अष्टविध कर्मके नाम ये हैं: १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ५.गोत्र, और ८. अन्तराय। इनमेंसे १, २, ४ और ८ आत्माके मूल गुण ज्ञान, दर्शन आदिका घात करनेवाले होनेसे घातिकर्म कहलाते हैं, जबकि अवशिष्ट चार अघातिकर्म। घातिकर्मीका क्षय होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। मूलमें 'अट्ठकम्मरहियस्य"केवलनाणं समुप्पक्ष' ऐसा पाठ है। सिदान्त तो यह है कि चार घातिकर्मो का नाश होने पर केवल ज्ञान होता है, अतः यहाँ लेखकका अभिप्राय ऐसा प्रतीत होता है कि चार घातिकर्मों का नाश होने पर अवशिष्ट क्षीणबल हो जाते हैं। अतएव नगण्य हैं इसीलिए समस्त कर्मों का विलय होने पर केवलज्ञान उत्पन होता है ऐसा भी कहा जा सकता है। विमलसूरिके इस पउमचरियके आधार पर श्री रविषेणाचार्यने संस्कृतमें पद्मपुराण लिखा है। उसमें तो 'चिच्छेद घातिकर्मचतुष्टयं' ऐसा ही उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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