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________________ २.२०] २. सेणियचिंताविहाणं बहुभण्डसारगरुयं, जल-थलयसमिद्धरयणभरियघरं । नाणादेससमागय-वणियजणुल्लावसद्दालं ॥ १० ॥ भवणङ्गणचणेसु य, मरगय-माणिक्ककिरणकब्बुरियं । अगुरुय-तुरुक्क-चन्दण-जणवयपरिभोयसुसुयन्धं ॥ ११ ॥ चेइयघरेहि रम्म, आरामुजाण-काणणसमिद्धं । सर-सरसि-बावि-वप्पिण-सएसु अइमणहरालोवं ॥ १२ ॥ चच्चर-चउक्कमणहर-पेच्छणयमहन्तमहुरनिग्धोसं । पण्डियजणसुसमिद्धं, अक्खलियचरित्तबहुसत्थं ॥ १३ ॥ कि जंपिएण बहुणा. तं नयरं गुणसहस्सआवासं । अमरपुरस्स य सोहं, घेत्तूण व होज निम्मवियं ॥ १४ ॥ श्रेणीको राजाएवंविहे य नयरे, वसइ निवो तत्थ सेणिओ नाम । नरवइगुणेहि जुत्तो, वेसमणो चेव पच्चक्खो ॥ १५॥ भमरनिभनिद्धकेसो, वियसियवरपउमसरिसमुहसोहो । घण-पीण-कढिणखन्धो, थोरुनय-दीहबाहुजुओ ॥ १६ ॥ वित्थिण्णपिहलवच्छो, करयलसमगिज्झललियतणुमज्झो । मयरायसरिसकडियड, समहियवरहत्थिहत्थोरू ॥१७॥ कुम्मवरचारुचलणो. सोवणियपचओ छ दिप्पन्तो । चन्दो व सोमवयणो, सलिलनिही चेव गम्भीरो ॥ १८ ॥ तं नत्थि जं न याणइ, नरिन्दविन्नाण-नाणमाहप्पं । सम्मत्तलद्धबुद्धी, गुरु-देवयपूयणसमत्थो ॥ १९ ॥ विविहकला-ऽऽगमकुसलो वि माणवो तस्स वरनरिन्दस्स । सुचिरं पि भण्णमाणो, गुणाण अन्तं न पाविज्जा ॥२०॥ [सिरिवीरजिणचरियं ] वीरजिनजन्म, सुरकृतो जन्माभिषेकश्च अत्थेत्थ भरहवासे, कुण्डग्गामं पुरं गुणसमिद्धं । तत्थ य नरिन्दवसहो, सिद्धत्थो नाम नामेणं ॥ २१ ॥ मूल्यवान पदार्थोंसे यह भरा-पूरा था और इसके घर जल व स्थल में उपलब्ध होनेवाले बहुमूल्य रत्नोंसे भरे हुए थे। यह नगर अनेक देशोंसे आये हुए व्यापारियोंके वार्तालापोंसे शब्दायमान रहता था। (१०) महलोंके प्रांगणको सजानेमें लाये गये मरकत एवं माणिक्यकी किरणोंसे यह चितकबरा-सा दिखाई पड़ता था तथा अगुरु, तुरुष्क एवं चन्दनकी सुगन्धिसे यह सारा नगर परिव्याप्त था। (११) यह देवमन्दिरोंसे रम्य था, बाराबगीचों व उद्यानोंसे समृद्ध था तथा सैकड़ों सरोवर, झील, बावड़ी एवं खेतोंके कारण रमणीय प्रतीत होता था। (१२) इसके चौक और चौराहे विशाल एवं प्रेक्षणीय थे। वे मधुर ध्वनिसे व्याप्त रहते थे। यह विद्वान् लोगोंसे समृद्ध था और लोगोंके अस्खलित चरित्रके कारण अत्यन्त प्रशंसनीय था। (१३) अधिक कहनेसे क्या? यह नगर हजारों गुणोंका आवास था और ऐसा मालूम होता था मानो इन्द्रपुरी अलकाकी शोभा लेकर इसका निर्माण कियागया हो। । १४ ) राना श्रेणिकका वर्णन इस प्रकारके नगरमें राजोचित गुणोंसे युक्त तथा साक्षात् कुबेरके जैसा श्रेणिक नामका नृप रहता था। (१५) उसके केश भ्रमरके समान काले और स्निग्ध थे; उसके मुखकी शोभा खिले हुए सुन्दर कमल सरीखी थी, उसके कन्धे मोटे, मजबूत और कठिन थे, उसके दोनों हाथ लम्बे, मोटे और गोल थे, (१६) उसका वक्षःस्थल चौड़ा और उभरा हुआ था, उसकी कमर सुन्दर और हाथकी पकड़में आ सके उतनी पतली थी, उसका कटिप्रदेश सिंहके जैसा था, उसकी जाँघ हाथीकी सुंढसे भी अधिक सुन्दर थी, उसके पैर उत्तम कछुएकी भाँति सुन्दर थे, वह सुवर्णगिरिके सहश देदीप्यमान था, उसका मुख चन्द्रमाके समान सौम्य था और समुद्रके जैसा वह गम्भीर था। (१७-१८) राजनीति और महत्त्वका ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं था जो वह न जानता हो। सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न उसकी बुद्धि थी और गुरु व देव (जिन) की पूजा करने में वह उद्यत रहता था। (१९) नानाविध कलाओं व शास्त्रों में पारंगत मनुष्य भी यदि उस राजेन्द्रकी चिरकाल तक स्तुति करे तो भी उसके गुणोंको वह पार नहीं पा सकता । (२०) महावीर-चरित इसी भरतक्षेत्रमें गुण एवं समृद्धिसे सम्पन्न कुण्डग्राम नामका नगर था। वहाँ पर राजाओंमें वृषभके समान Jain Education International www.jainelibrary.org mational For Private & Personal Use Only
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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