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________________ २. ४३] २. सेणियचिंताविहाणं नयणा फन्दणरहिया. नहकेसाऽवटिया य निद्धा य । बोयणसयं समन्ता, मारीइ विवज्जिओ देसो ॥ ३२ ॥ जत्तो ठवेइ चलणे. तत्तो जायन्ति सहसपत्ताई। फलभरनमिया य दुमा, साससमिद्धा मही होइ ॥ ३३ ॥ आयरिससमा धरणी. जायइ इह अद्धमागही वाणी । सरए व निम्मलाओ, दिसाओ रय-रेणुरहियाओ ॥ ३४॥ ठायइ जत्थ जिणिन्दो, तत्थ य सीहासणं रयणचित्तं । जोयणघोसमणहरं, दुन्दुहि सुरकुसुमवुट्टी य ॥ ३५॥ एवं सो मुणिवसहो, अट्टमहापाडिहेरपरियरिओ। विहरइ जिणिन्दभाणू, बोहिन्तो भवियकमलाई ॥ ३६॥ अइसयविहूइसहिओ, गण गणहर-सयलसङ्घपरिवारो। विहरन्तो च्चिय पत्तो, विउलगिरिन्दं महावीरो ॥ ३७ ॥ केवलमहिमार्थ देवानामागमनम्नाऊण देवराया. विउलमहागिरिवरे जिणवरिन्दं। एरावणं वलम्गो, हिमगिरिसिहरस्स संकासं ॥ ३८ ॥ सिंदूररइयकुम्भ, विरइयनक्खत्तमालकयसोहं । घण्टारवनिग्धोसं, गण्डयलुब्भिन्नमयलेहं ॥ ३९ ॥ गुमुगुमुगुमन्तमहुयर-निलीणमयसुरहिवासियमुयन्धं । चलचवलकण्णचामर-वाउद्भुबन्तधयमालं ॥ ४० सामाणियपरिकिण्णो, अच्छरसुग्गीयमाणमाहप्पो। सबसुरासुरसहिओ, विउलगिरि आगओ इन्दो ॥ ४१ ॥ दट्टण जिणवरिन्द, करयलजुयलं करीय सीसम्मि । सक्को पहट्टमणसो, थोऊण जिणं समाढत्तो ॥ ४२ ॥ वीरस्तुतिः मोहन्धयारतिमिरे, मुत्तं चिय सयलजीवलोयमिणं । केवलकिरणदिवायर !, तुमेव उज्जोइयं विमलं ॥ ४३ ।। उनकी आँखें स्पन्दनसे रहित थी. उनके नाखून और बाल अवस्थित तथा स्निग्ध थे और उनके चारों ओर सौ योजन तकका प्रदेश संक्रामक रोगोंसे शून्य रहता था। (३२) जहाँ पर उनके चरण पड़ते थे वहाँ सहस्रदल कमल निमित हो जाता था, वृक्ष फलोंके भारसे झुक-से जाते थे, पृथ्वो धान्यसे परिपूर्ण और जमीन दर्पणके समान स्वच्छ हो जाती थी। अर्धमागधी वाणी उनके मुखसे निकलती थी और धूल व गर्द से रहित दिशाएँ शरत्कालकी भाँति निर्मल हो जाती थीं। (३३-३४) जहाँ जिनेन्द्र महावीर ठहरे थे वहाँ रत्नखचित सिंहासन, योजन पर्यन्त जिसका मनोहर शब्द सुनाई दे ऐसी दुन्दुभि तथा देवों द्वारा की जानेवाली पुष्पवृष्टि होती थी। (३५) इस प्रकार आठ प्रातिहार्योंसे समन्वित मुनिवृषभ और जिनेन्द्रोंमें भी सूर्य सदृश भगवान महावीर भव्यजनरूपी कमलोंको विकसित करते हुए विचरते थे। (३६) शिष्यसमुदाय, गणधर एवं सकल संघके साथ विहार करते हुए तथा ज्ञानादि अतिशयोंको विभूतिसे युक्त महावार एक बार विपुलाचलके ऊपर पधारे। (३७) विपुल नामक पर्वत पर जिनवरेन्द्र पधारे हैं ऐसा अवधिज्ञानसे जानकर देवेन्द्र हिमगिरिके एक शिखर-सरीखे अपने ऐरावत हाथी पर चढ़ा। (३८) उस ऐरावत हाथोके गण्डस्थल सिन्दूरसे सजाये थे, गले पर नक्षत्रमालाका आलेखन करनेसे वह सुशोभित हो रहा था, गलेमें लटकते हुए घण्टकी ध्वनिसे वह शब्दित हो रहा था, उसके गण्डस्थलमेंसे मदको धारा बह रही थी। (३९) जिस पर भौंरे गुनगुना रहे थे ऐसे मदकी मधुर गन्धसे वह सुरभित हो रहा था, चंचल कानरूपी चामरोंसे उत्पन्न वायुसे ध्वजाओंकी माला हिल रही थी। (४०) सामानिक देवोंसे घिरा हुआ तथा अप्सराएँ जिसका माहात्म्य गा रही हैं ऐसा इन्द्र सभी सुर एवं असुरोंके साथ विमलगिरि पर आया। (४१) जिनवरेन्द्र को देखते ही दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर मनमें आनन्दित होता हुआ वह भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगा-(४२) वीरस्तुति "हे केवलज्ञानरूपी किरणोंसे सूर्यके समान ! यह सारा जीवलोक मोहरूपी गहरे अन्धकारमें सोया हुआ है। १. सामानिक वे देव हैं जो आयु आदिमें इन्द्र के समान हों अर्थात् जो अमात्य, पिता, गुरु आदिकी तरह पूज्य हों, पर जिनमें केवल इन्द्रत्व न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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