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________________ [१.८ पउमचरियं अभिधेयम्नामावलियनिबद्धं, आयरियपरंपरागयं सबं । वोच्छामि पउमचरियं, अहाणुपुचि समासेण ॥ ८ ॥ को वण्णिऊण तीरइ, नीसेसं पउमचरियसंबन्धं । मोत्तूण केवलिनिणं, तिकालनाणं हवइ जस्स ॥ ९ ॥ जिणवरमुहाओ अत्थो, जो पुविं निग्गओ बहुवियप्पो । सो गणहरेहि धरिउं, संखेवमिणो य उवइट्ठो ॥ १० ॥ एवं परंपराए, परिहाणी पुरगन्थ-अत्थाणं । नाऊण कालभावं, न रूसियव्वं बुहजणेणं ॥ ११ ॥ अत्थेत्थ विसमसीला, केवि नरा दोसगहणतलिच्छा । तुट्टा वि सुभणिएहिं, एक पि गुणं न गेण्हन्ति ॥ १२ ॥ सबन्नभासियत्थं, भणन्ति कइणो जहागमगुणेणं । किं वज्जसृइभिन्ने, न रियह तन्तू महारयणे ॥ १३ ॥ एत्थं चिय परिसाए, नराण चित्ताइँ बहुवियप्पाइं । को सक्को घेत्तुजे पवणहयाई व पत्ताई ? ॥ १४ ॥ तित्थयरेहि वि न कयं, एक्कमयं तिहुयणं सुयधरेहिं । अम्हारिसेहि किं पुण, कीरइ इह मन्दबुद्धीहिं ? ॥१५॥ नइ वि हु दुग्गहहियओ, लोगो बहुकूड-कवडमेहावी । तह वि य भणामि संपइ, सबुद्धिविहवाणुसारेणं॥ १६ ॥ देहं रोगाइण्णं, नीयं तडिविलसियं पिव अणिचं । नवरं कबगुणरसो, जाव य ससि-सूर-गहचकं ॥ १७ ॥ तम्हा नरेण निययं, महइमहापुरिसकित्तणुच्छाहं । हियए चिय कायव्वं, अत्ताणं चेयमाणेणं ॥ १८ ॥ भी जो महिमाशाली एवं दुष्प्रवृत्तियोंसे मन-वचन-कायकी रक्षा करनेवाले महर्षि, गणधर व साधु हैं इन सबको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ। (१-७) ग्रन्थरचनाकी प्रतिज्ञा मैं पद्म (राम) की कथाको, जिसमें अनेक नाम आते हैं और जो आचाय-परम्परासे मुझे प्राप्त हुई है, उसे यथाक्रम संक्षेपसे कहूँगा । (८) जिसे भूत, भविष्य एवं वर्तमान इन तीनों कालोंका ज्ञान हो उस केवलज्ञानी जिनेश्वरको छोड़कर दूसरा कौन रामके चरितको समग्रभावसे कहने में समर्थ है ? (९) जिनवरके मुखसे अनेक विकल्प एवं विभिन्न आशयोंसे परिपूर्ण जो अर्थ पहले प्रकाशित हुआ वह उनके साक्षात् शिष्य गणधरोंने धारण किया। उन्होंने उसीको पुनः संक्षेपसे कहा । (१०) इस प्रकार परम्परासे पूर्व-ग्रन्थ एवं उनके अर्थ क्षीण होते गये। अतएव कालका प्रभाव जानकर बुद्धिशाली पुरुषको क्रुद्ध न होना चाहिये , (११) यहाँ पर दुश्चरित एवं दोषग्रहण करने में ही तत्पर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो सुन्दर उपदेश द्वारा तुष्ट किये जाने पर भी एक भी गुण ग्रहण नहीं करते । (१२) सर्वज्ञ द्वारा कथित अर्थको कविजन अपने अपने शास्त्राभ्यास एवं शक्ति, निपुणता आदि गुणोंके अनुसार कहते हैं; वनकी सईसे छिन्न महारत्नमें क्या दोरा नहीं पिरोया जाता? (१३) - इस सभामें लोगोंकी चित्तवृत्ति अनेक प्रकार की है। पवनके द्वारा कम्पित पत्तोंके जैसी अस्थिर चित्तवृत्तियोंको प्रहण करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? (१४) जब श्रुतधर तीर्थकर भी तीनों लोकोंको एकमत नहीं कर सके, तब हमारे जैसे मन्दबुद्धि तो इसमें कर ही क्या सकते हैं ? (१५) यद्यपि लोगोंका हृदय बड़ी कठिनाईसे पकड़ में आ सके ऐसा गहरा होता है और छलकपटमें भी वे दक्ष होते हैं, तथापि मैं अपने बुद्धिवैभवके अनुसार अब कहता हूँ। (१६) शरीर रोगसे भरापूरा है, जीवन बिजलीकी चमककी भाँति क्षणजीवी है; केवल काव्य-गुणका रस ही जबतक चन्द्र, १. तत्पराः । २. प्रविशति । ३. पादपूरणार्थकमव्ययम् । ४. स्वबुद्धि । ५. चेतयता-जानता । ६ बारहवें अंग दृष्टिवादके एक भागको जन-परम्परामें पूर्व-प्रन्थ कहते है, परन्तु पाश्चात्य विद्वानोंके मतके अनुसार पूर्व-ग्रन्थसे अभिप्रेत प्राक्-महावीरकालीन साहित्य है। ७. संस्कृत साहित्यके आचार्योंने कायोद्भवके हेतुओका उल्लेख इस प्रकार किया है : शक्तिनिपुणता लोकशास्त्राद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाऽभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥ काव्यप्रकाश १-३ नैसर्गिको च प्रतिभा. श्रुतं च बहु निर्मलम् । अमन्दश्चाऽभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः ॥ काव्यादर्श १-१.३ कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र च दुर्लभा । व्युत्पत्तिदुर्लभा तत्र विवेकस्तत्र दुर्लभः ॥ अमिपुराण ३३७.४ नैसगणता लोकशावायवीके हेतुओका उल्लेखतके अनुसार पूर्व - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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