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________________ १. ३१] १. सुत्तविहाणं देहावयवसाफल्यम्ते नाम होन्ति कण्णा, जे जिणवरसासणम्मि सुइपुण्णा । अन्ने विदूसगस्स व, दारुमया चेव निम्मविया ॥ १९ ॥ तं चेव उत्तिमङ्गं, जं घुम्मइ वण्णणाइसामन्ने । अन्नं पुण गुणरहियं, नालियरकरङ्कयं चेव ॥ २० ॥ जिणदरिसणुज्जया वि हु, जे नयणा ते हवन्ति सुपसत्था । मिच्छत्तमइलिया पुण, चित्तयरेणं व निम्मविया ॥ २१ ॥ जिणवरकहाणुरत्ता, दन्ता ते होन्ति कन्तिसंजुत्ता । सेसा सिलेसकज्जे, जाया वि हु वयणबन्धम्मि ॥ २२ ॥ किं नासियाएँ कीरइ, बहुविहससुगन्धगन्धलुद्धाए ? । मुसुयत्थगन्धगन्धं, जा न वि जाणेइ लोगम्मि ॥ २३ ॥ जे चिय समउल्लावं, भणन्ति ते उत्तमा इह ओहा। अन्ने सुत्तजलूगा-पट्टीसंवुक्कसमसरिसा ॥२४॥ ना जाणइ समयरसं, सा जीहा सुन्दरा हवइ लोए । दुबयणतिक्खधारा, सेसा छुरिय व नवघडिया ॥ २५ ॥ तं पि य हवइ पहाणं, मुहकमलं जं गुणेसु तेत्तिल्लं । अन्नं बिलं व भण्णइ, भरियं चिय दन्तकीडाणं ॥ २६ ॥ जो पढइ सुणइ पुरिसो, सामण्णे उज्जमेइ सत्तीए । सो उत्तमो हु लोए, अन्नो पुण सिप्पियको छ ॥ २७ ॥ सबायरेण एवं, पुरिसेणं उज्झिऊण मूढत्तं । होयव्वं नयमइणा, जिणसासणभत्तिजुत्तेणं ॥ २८ ॥ अह पउमचरियतुङ्गे, वीरमहागयवरेण निम्मविए । मग्गे परंपराए, अज्जवि कइकुञ्जराण गमो ॥ २९ ॥ तह कइवरगयमयगन्धलोलुओ महुयरो व मग्गेणं । पयदाणबिन्दुदिट्ठी, अहमवि तेणं चिय पयट्टो ॥ ३० ॥ सुत्ताणुसारसरसं, रइयं गाहाहि पायडफुडत्थं । विमलेण पउमचरियं, संखेवेणं निसामेह ॥ ३१ ॥ सूर्य एवं प्रहमण्डल हैं तबतक स्थिर रहता है। (१७) इसलिए अपने आत्मस्वरूपको जाननेवाले मनुष्यको चाहिए कि वह अवश्य ही बड़े-बड़े महापुरुषोंके संकीर्तनका उत्साह अपने हृदयमें धारण करे। (१८) शरीरके विभिन्न अंगोंकी सार्थकता वे ही कान कान कहे जाने योग्य हैं जो जिनवरके उपदेशसे पूर्ण हैं। दूसरे तो लकड़ीके बनाये हुए विदूषकके कान जैसे निरर्थक हैं। (१९) वही मस्तक-मस्तक है जो श्रामण्य अर्थात् मुनिधर्मका उपदेश सुनकर अहोभावसे धुनता हो; दूसरा तो गर्भरहित नारियलके छिलकेके समान गुणरहित है। (२०) जिनेश्वरदेवके दर्शनके लिए जो आँखें उत्सुक रहती हैं वे ही वस्तुतः सुन्दर एवं प्रशंसनीय आँखें हैं, बाकी जो आँखें मिथ्यात्वसे मैली हैं वे तो मानो किसी चित्रकारके द्वारा बनाई गई हैं, अर्थात् वे सही नहीं, किन्तु झूठी हैं । (२१) जो दाँत जिनवरकी कथामें अनुरक्त हैं वे ही दाँत कान्तियुक्त हैं; दूसरे तो मुंहके चौगठे में जड़नेके लिए ही मानो बनाये गये हैं। ( २२) यदि इस लोकमें सुशास्त्रोंके अर्थमें रही हुई सुगन्धको न पहचान सके तो अनेकविध सुरभित पदार्थोकी सुगन्धकी गन्धमें लुब्ध नासिकाका क्या उपयोग है ? (२३) यहाँ पर वे ही होठ उत्तम हैं जो समभावपूर्वक उद्गार निकालते हैं। दूसरे तो सोई हुई जौंककी पीठके समान हैं । (२४) जो शास्त्र-रसका आस्वाद लेती है वही जीभ इस जगत्में सुन्दर है। दूसरी तो दुर्वचनरूपी तीक्ष्ण धारबाली नई छुरीके समान ही है। (२५) जो गुणकथनमें तत्पर रहता है वही मुखकमल उत्तम है; दूसरा तो दाँतरूपी कोड़ोंसे भरा हुआ बिल ही है ! (२६) जो मनुष्य मुनिधमंका अभ्यास करता है, उसे सुनता है और उस पर यथाशक्ति आचरण करता है, वही इस लोकमें उत्तम मनुष्य हैं। दूसग तो शिल्पी द्वारा विनिर्मित मूर्ति सरीखा है। (२७) अतएव मूढता एवं प्रमादका त्याग करके सदाचारी एवं नीतिनिष्ठ बुद्धिशील मनुष्यको चाहिए कि वह जिनशासनमें भक्तियुक्त हो । (२८) पद्मचरितरूपी समुन्नत शिखर पर भगवान महावीररूपी गजराज द्वारा निर्मित मार्गका अनुगमन करके आज भी कविरूपी दूसरे हाथी चढ़ते हैं। (२९) अतएव उत्तम कविरूपी हाथी मदकी गन्धमें लोलुप भौंरेके जैसा मैं भी मदकी बूंदोंमें दृष्टि रखकर उसी मार्ग पर प्रवृत्त हुआ हूँ। (३०) सूत्रों (आगमों) के अनुसार तथा रसपूर्ण यह पद्मचरित विमलने प्रकट एवं स्फुट अथसे युक्त प्राकृत गाथाओं में लिखा है। इसे तुम संक्षेपसे सुनो। (३१) १. सिद्धान्तवचनम् । २. तत्परम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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