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॥ णमो अणुओगधराणं ।। सिरीविमलायरियविरइयं पउमचरियं
१. सुत्तविहाणं मङ्गलम्सिद्ध-सुर-किन्नरोरग-दणुवइ-भवणिन्दवन्दपरिमहियं । उसहं जिणवरवसह, अवसप्पिणिआइतित्थयरं ॥ १ ॥
अनिय विनियकसायं, अपुणब्भव संभवं भवविणासं । अभिनन्दणं च सुमई, पउमाभं पउमसच्छायं ॥ २ ॥ तिजगुत्तमं सुपासं. ससिप्पभं जिणवरं कुसुमदन्तं । अह सीयलं मुणिन्दं, सेयंसं चेव वसुपुजं ॥ ३ ॥ विमलं तहा अणन्तं, धम्मं धम्मासयं जिणं सन्ति । कुन्थु कसायमहणं, अरं जियारिं महाभागं ॥ ४ ॥ मलिं मलियभवोहं, मुणिसुब्बय सुवयं तियसनाहं । पउमस्स इमं चरियं, जस्स य तित्थे समुप्पन्नं ॥ ५ ॥ नमि नेमि तह य पासं, उरगमहाफणिमणीसु पज्जलियं । वीरं विलीणरयमल, तिहुयणपरिवन्दियं भयवं ॥ ६ ॥ अन्ने वि जे महारिसि, गणहर अणगार लद्धमाहप्पे । मण-वयण-कायगुत्ते, सव्वे सिरसा नमसामि ॥ ७ ॥
पद्मचरित
१. सूत्रविधान मङ्गलाचरण
विद्या, मंत्र, शिल्प आदि विविध सिद्धियाँ प्राप्त करनेवाले सिद्ध, देव, किन्नर, नाग, असुरपति एवं भवनेन्द्रोंके समूह द्वारा पूजित, जिनवरोंमें वृषभके समान श्रेष्ठ और इस अवसर्पिणी' कालमें होनेवाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभको,-कषायों पर विजय प्राप्त करनेवाले अजितको,-मुक्ति प्राप्त करनेसे पुनः जन्म धारण नहीं करनेवाले सम्भवको,-जन्मका नाश करनेवाले अभिनन्दन व सुमतिको,-पद्मके समान सुन्दर कान्तिवाले पद्मप्रभको, तीनों लोकोंमें उत्तम सुपार्श्वको,-जिनेश्वर शशिप्रभ (चन्द्रप्रभ) तथा कुसुमदन्त (सुविधि)को,-मुनियोंमें इन्द्रके समान शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य) विमल एवं अनन्तको, -धर्मके आश्रयरूप धर्मको,-रागादि आन्तरिक शत्रुओंके ऊपर विजय प्राप्त करनेवाले शान्तिको,-कषायका नाश करनेवाले कुन्थुको,-शत्रुओंको जीतनेवाले तथा अनन्त ऐश्वर्य-सम्पन्न अरको, जन्ममरणके प्रवाहका नाश करनेवाले मल्लिको,-सुव्रतधारी, देवोंके स्वामी ( अर्थात् देवाधिदेव) तथा पद्म (राम) की कथा जिनके शासनकालमें घटी ऐसे मुनिसुव्रतको, नमि एवं नेमिको,-धरणेन्द्र नामक नागकी बड़ी बड़ी फणाओंके ऊपर स्थित मणियोंके प्रकाशसे देदीप्यमान पार्श्वको, कर्ममलको दूर करनेवाले और इसीलिए तीनों लोकों द्वारा पूजित भगवान् वीरको, तथा दूसरे
१. सुविधिजिनम् । २. जैन शास्त्रों में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणीके नामसे कालके मुख्य दो विभाग किये गये हैं। इन उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीमें असंख्येय वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। उत्सर्पिणी कालमें रूप, रस, गन्ध, शरीर, आयुष्य, बल आदि वैभव क्रमशः बढ़ते जाते हैं, जबकि भवसर्पिणीकालमें वे सब घटते जाते हैं। प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसपिणीके छह विभाग किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक विभागको आरा (संस्कृत शब्द 'भर') कहा जाता है । उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीको कालचक्रके एक पहियेके रूपमे कल्पना करें तो इनके वारह विभागोंको 'आरा' कह सकते हैं। एकके छह भारे पूर्ण होने पर दूसरेके आरोंका आरम्भ होता है। छह आरोके नाम इस प्रकार हैं-(१) सुषमा-सुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषमादुषमा, (४) दुःषमा-सुषमा, (५) दुःषमा, और (६) दुःषमा-दुःषमा। तीर्थकर तीसरे आरेके अंतमें और चौथे आरेमें होते हैं। इस समस भारतवर्ष आदि क्षेत्रों में अवसर्पिणीका पाँचवाँ आरा चल रहा है। ३. कषायके चार भेद हैं: क्रोध, मान, माया और लोभ ।
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