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________________ ५६. ७] ५६. विज्जासन्निहाणप पढमा सग्गाउ चुया, दोण्णि वि मणुया तओ समुप्पन्ना । गिहिधम्मरया कालं, काऊण सुरा समुप्पन्ना ॥ पुण्णावसाणसमए, ते इन्धय-पल्लवा चुयसमाणा । नाया किकिन्धिपुरे, नल-नीला रिक्खरयपुता ॥ जं पावपरिणएहिं, ते इन्धय-पल्लवा पुरा वहिया । तं नल-नीलेहि रणे, हत्थ - पहत्था पुणो निया ॥ जो जेण हओ पुत्रं, सो तेणं हम्मए न संदेहो । तम्हा न हणेयबो, अन्नो मा होहि सत्तू | जो जीवाणं सेणिय ! देइ सुहं सो हु भुञ्जए सोक्खं । दुक्खं दुक्खावेन्तो, पावइ नत्थेत्थ संदेहो ॥ एव इमं नल-नीलविहाणं, हत्थ - यहत्थवहं निसुणेउं । वज्जिय वेरपहं बहुदुक्खं, लेह इमं विमलं जिणधम्मं ॥ ॥ इय पउमचरिए नल-नील- हत्थ - पहत्यपुव्वभवारणुकित्तणं नाम अट्ठावन्नं पव्वं समत्तं ॥ ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ ५९. विज्जासन्निहाणपव्वं हत्थ - पहत्था समरे, निया नाऊण रावणस्स भडा । बहवो कोहवसगया, समुट्टिया तत्थ रणसूरा ॥ १ ॥ सीहकडी माणी वि य, सयंभु-सुय-सारणा य संभूय । चन्दो य तहा अक्को, गओ य बीभच्छनामो य ॥ २ ॥ सुहडो जरो य अक्को, मयरो वज्जक्खनामहेओ य । गम्भीराई एए, सन्नद्धा रणरसुच्छाहा ॥ ३ ॥ केसरिजुत्तेसु इमे, रहेसु असि - कणय - तोमरविहत्था । दिट्ठा य उत्थरन्ता, निसायरा वाणरभडेहिं ॥ ४ ॥ मयणङ्कुर-संतावा, अक्कोसा - ऽऽणन्दणा तहा हरिया | नहपुप्फुत्थावग्घा, एए पीयंकराईया ॥ ५ ॥ एक्वेक्कमाण जुज्झं, आवडियं दारुणं वरभडाणं । नह आउहेहि जायं, जलई व नहङ्गणं सहसा ॥ ६ ॥ मारिज्जेण समाणं, संतावो रणमुहे समावडिओ । पहओ सीहकडीणं, उद्दामो विग्घनामेणं ॥ ७ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ पहलेके दोनों इन्धन और पल्लव स्वर्गसे च्युत होने पर मनुष्य रूपसे उत्पन्न हुए । गृहस्थ धर्म में रत वे मरकर देवके रूपमें पैदा हुए। (१४) पुण्यके अवसानके समय च्युत होने पर वे इन्धन और पल्लव ऋक्षरजाके पुत्र नल एवं नील रूपसे किष्किन्धपुरी में पैदा हुए। (१५) पाप- परिणामवाले उनके द्वारा इन्धन और पल्लव मारे गये थे, अतः नल और नीलने युद्ध में हस्त और प्रहरतको मारा । (१६) इसमें सन्देह नहीं कि पहले जो जिससे मारा जाता है वह मारनेवाला बादमें उससे मारा जाता है । इसलिए मारना नहीं चाहिए, अन्यथा दूसरा शत्रु हो जायगा । (१७) श्रेणिक ! इसमें सन्देह नहीं कि जो जीवोंको सुख देता है वह अवश्य ही सुखका उपभोग करता है और दुःख देनेवाला दुःख पाता है । (१८) इस तरह नल एवं नील द्वारा किया गया हस्त एवं प्रहस्तका यह वध सुनकर बहुत दुःखदायी वैरमार्गका परित्याग करके तुम इस विमल जिनधर्मको प्राप्त करो । ( १६) ॥ पद्मचरितमें नल-नील तथा हस्त-प्रहस्तके पूर्वभवका वर्णन नामक अट्ठावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ Jain Education International ३७१ ५९. विद्याकी प्राप्ति हस्त और प्रहस्त युद्धमें मारे गये हैं ऐसा जानकर रावणके क्रोधके वशीभूत बहुत-से रणशूर सुभट उठ खड़े हुए । सिंहकटि, मानी, स्वयम्भू, शुक, सारण, शम्भु, चन्द्र, सूर्य, गज, बीभत्स, सुभटज्वर, अर्क, मकर, वज्राक्ष तथा गम्भीर आदि रणरसमें उत्साहशील ये सुभट तैयार हो गये । (१-३) सिंह से युक्त रथों में तलवार, कनक एवं तोमर चलानेमें दक्ष राक्षसोंको वानर-सुभटोंने बाहर निकलते देखा । (४) मदनांकुर, सन्ताप, आक्रोश, आनन्दन, हरित, नभ, पुष्पात्र, व्याघ्र तथा प्रियंकर आदि इन एक-एक सुभटोंका आयुधोंसे ऐसा भयंकर युद्ध हुआ कि मानो सहसा गगनांगण जल उठा । (५-६) युद्धमें मारीचिके साथ सन्ताप, सिंहकटिके साथ प्रहत और विघ्नके साथ उद्दाम लड़ने लगे । (७) आक्रोश १. रणसमुच्छाहा— प्रत्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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