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५८. नल-नील-हत्थ-पहत्थपुव्वभवपव्वं काऊण सिरपणामं, पुच्छड् मगहाहिवो गणहरिन्दं । न य केणइ जियपुबा, हत्थ-पहत्था महासुहडा ॥ १ ॥ कह नल-नीलेहि रणे, विवाइया अइबला वि ते भयवं! । साहेहि निरवसेस, एत्थं मे कोउयं परमं ॥२॥ तो भणइ इन्दभूई, सेणिय! ताणं तु पुबसंबन्धं । निसुणेहि एगमणसो, कहेमि सर्व जहावत्तं ॥ ३ ॥ अस्थि कुसत्थलनयरे, विप्पा एक्कोयरा दुवे गिहिणो । करिसणकम्माहिरया, ते इन्धण-पल्लवा नामं ॥ ४ ॥ न कुणन्ति साहुनिन्द, भिक्खादाणुज्जया विणीया य। जिणसासणपरिसङ्गं. इच्छन्ति सहावजोएणं ॥ ५॥ बीयं तु भाइजुयलं, अइकूरं निद्दयं असुहचित्तं । लोइयसुईसु मूढं, साहूणं निन्दणुज्जत्तं ॥ ६ ॥ नरवइदाणनिमित्ते, जाए च्चिय दारुणे तओ कलहे । पावेहि तेहि निहया, अह इन्धण-पल्लवा दो वि ॥ ७॥ मुणिवरदाणफलेणं, हरिवरिसे भुञ्जिऊण भोगविही । आउक्खयम्मि जाया, दोण्णि वि देवा विमाणेसु ॥ ८ ॥ ते पुण जे पावरया, मरिउ कालिञ्जरे महारणे । जाया दोणि वि ससया, बहुदुक्खसमाउले भीमे ॥ ९ ॥ तिबकसायाण इह, पुरिसाणं साहुनिन्दणषराणं । इन्दियवसाणुगाणं, नियमेणं दोग्गईगमणं ॥ १० ॥ कालं काऊण तओ, नाणाजोणीसु भमिय तिरियत्ते । उप्पन्ना मणुयभवे, वक्कलिणो तावसा जाया ॥ ११ ॥ महइजडा महकाया, बालतवं अजिऊण कालगया । जाया अरिंजयपुरे, आसिणिदेवीएँ गन्मम्मि ॥ १२ ॥ वण्हिकुमारस्स सुया, हत्थ-पहत्था सुर व रूवेणं । तेलोकपायडभडा, भिच्चा रयणासवसुयस्स ॥ १३ ॥
५८. नल-नील तथा हस्त-प्रहस्तके पूर्वभवका वर्णन सिरसे प्रणाम करके मगधनरेश श्रेणिकने गणधरेन्द्र गौतमसे पूछा कि, हे भगवन् ! हस्त एवं प्रहस्त महासुभटोंको पहले किसीने जीता नहीं था। फिर भी अति बलवान् वे नल और नीलसे कैसे मारे गये ? इसमें मुझे अत्यन्त कुतूहल हो रहा है, अतः आप समग्र वृत्तान्त कहें। (१-२) तब इन्द्रभूतिने कहा कि, हे श्रेणिक ! तुम एकाग्र मनसे उनका पूर्व-वृत्तान्त सुनो। जैसा हुआ था वैसा मैं कहता हूँ। (३)
कुशस्थल नगरमें खेतीमें निरत दो सहोदर गृहस्थ रहते थे। उनका नाम इन्धन और पल्लव था । (४) भिक्षादानमें उद्यत और विनीत वे साधुकी निन्दा नहीं करते थे। स्वाभाविक रूपसे ही वे जिन शासनका संसर्ग चाहते थे। (५) दूसरा एक सहोदर-युगल था जो अतिक्रूर, निर्दय, अशुभ चित्तवाला, लौकिक शालोंमें मोहित तथा साधुओंकी निन्दामें तत्पर रहता था। (६) एक बार राजाके दानके निमित्तसे भयंकर कलह हुआ और उन पापियोंने इन्धन एवं पल्लव दोनोंको मार डाला। (७) मुनिवरोंको दिये गये दानके फलस्वरूप हरिवर्षमें भोगोंका उपभोग करके आयुका क्षय होने पर वे दोनों विमानों में उत्पन्न हुए। (८) जो पापरत थे वे मर करके कालिंजर नामक बहुत दुःखोंसे भरे हुए तथा भयंकर महारण्यमें दो खरगोशके रूपमें पैदा हुए। (8) इस लोकमें तीव्र कषायवाले, साधुओंकी निन्दामें तत्पर तथा इन्द्रियके वशीभूत मनुष्योंका अवश्य ही दुर्गतिमें गमन होता है। (१०) वहाँसे मरकर तिर्यंच रूपसे नाना योनियों में भटक कर वे मनुष्यभवमें उत्पन्न हुए तथा वल्कलधारी तापस हुए। (११) बड़ी जटावाले और महाकाय वे बाल-तप करके मरने पर अरिंजयपुरीमें अश्विनीदेवीके गर्भसे उत्पन्न हुए। (१२) वह्निकुमारके पुत्र वे हस्त व प्रहस्त रूपमें देव जैसे थे। त्रैलोक्यमें प्रसिद्ध सुभट वे रत्नश्रवाके पुत्र रावणके भृत्य थे। (१३)
१. भोगविहि-प्रत्य।
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