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५७.३६]
५७. हत्थ-पहत्थवहणपव्वं एत्तो समाहयाई, उभयबलेसु वि महन्ततूराई। पडुपडह-मेरि-झलरि-काहल-तिमिलाउलरवाई ॥ २२ ॥ भम्भा-मुइङ्ग-डमरुय-ढक्का-हुकार-सङ्खपउराई । खरमुहि-हुडुक्क-पावय-कंसालयतिबसद्दाई ॥ २३ ॥ गय-तुरय-केसरीणं, सद्दो वित्थरइ महिस-वसहाणं । मयपक्खीण बहुविहो, कायरपुरिसाण भयजणणो ॥ २४॥ बहुतूरनिणाएणं, भडाण वुक्कारवड्डियरवेणं । न सुणेइ एक्कमेक्को, उल्लावं कण्णपडियं पि ॥ २५ ॥ दोण्ह वि बलाण एत्तो, आलग्गे दारुणे महाजुज्झे । संखुभियवसुमईए, गिरी वि आकम्पिया सहसा ॥ २६ ॥ उबेलो लवणनलो, पवाइओ मारुओ बहलरेणु । विवरीयं सरियाओ, वहन्ति समराणुभावेणं ॥ २७ ॥ उभयबलेसु बरभडा, मोरंगर-सर-झसर-भिण्डिमालाई । मुञ्चन्ति आउहाइं, उक्काई व पज्जलन्ताई ॥ २८ ॥ सन्नद्धा रणसूरा, पहणन्ति गया-ऽसि-चक्कपहरेहिं । निययकुलं सावेन्ता, अन्नोन्नवहुज्जयमईया ॥ २९ ॥ आभिट्टा रयणियरा, चडकपहरोवमेसु घाएसु । तह जुज्झिउं पवत्ता, जह कइसेन्नं समोसरियं ।। ३० ॥ अन्ने समुट्ठिया पुण, वाणरसुहडा अभग्गरणपसरा । जुज्झन्ति सवडहुत्ता, रक्खससेन्नं विवाएन्ता ॥ ३१ ॥ अवसीयन्तं समरे, दट्ठणं रावणस्स निययबलं । हत्थ-पहत्था तुरियं, समुट्ठिया अहिमुहा ताणं ॥ ३२ ॥ तं कइवराण सेन्नं पुणरवि भग्गं पहत्थ-हत्थेहिं । सहसा पलायमाणं, रुद्धं नल-नीलसुहडेहिं ।। ३३ ।। जुज्झम्मि समावडिए, उभयबलेसु वि पडन्तवरसुहडे । वहिओ नलेण हत्थो, तह य पहत्थो वि नीलेणं ॥ ३४ ॥ दट्टण मारिए ते, हत्थ-पहत्थे तओ निययसेन्नं । विवडन्तजोहतुरयं, रणमज्झाओ समोसरियं ॥ ३५ ॥
एवं पहाणेण विणा न कजं, उवेइ सिद्धिं ववसिज्ज माणं । जहा निसा रिक्ख-गहाणुवन्ना, न होइ जोहाविमलंसुहीणा ॥ ३६ ॥
॥ इय पउमचरिए हत्थ-पहत्थवहणं नाम सत्तावन्नं पव्वं समत्तं ।। तब दोनों सैन्योंमें ढोल, भेरि, झलरी, काहल, और तिमिलकी ध्वनिसे युक्त; भंभा, मृदंग, डमरु, ढक्का, हुंकार एवं शंखसे व्याप्त और खरमुखी, हुडुक्क, पावक (बंसी) तथा कांस्यालके तीव्र शब्दोंके साथ बड़े-बड़े रणवाद्य वजाये गये। (२२-२३) उस समय कायर पुरुषोंमें भय पैदा करनेवाले हाथी, घोड़े, सिंह, महिष, वृषभ तथा मृग एवं पक्षियोंके अनेक प्रकारके शब्द चारों ओर फैल गये। (२४) बहुत-से वाद्योंके निनादसे तथा सुभटोंकी ऊँची-ऊँची गर्जनासे कानमें पड़ा हुआ कथन भी सुनाई नहीं पड़ता था। (२५) दोनों सेनाओंके बीच भयंकर महायुद्ध छिड़ जानेपर सहसा पृथ्वी संक्षुब्ध हो उठी तथा पर्वत काँपने लगे। (२६) युद्धके प्रभावसे लवण समुद्र उछलने लगा, धूलिसे मलिन पवन बहने लगा और नदियाँ उल्टी बहने लगीं। (२७) दोनों सेनाओंमेंसे सुभट प्रज्वलित उल्काओंकी भांति मुद्गर, बाण, मसर तथा भिन्दिमाल आदि आयुध फेंकने लगे। (२८) कवच पहने हुए और एक-दूसरेके वधके लिए उद्यत रणशूर योद्धा अपने अपने कुलका बखान करके गदा, तलवार और चक्र जैसे आयुधोंसे मारने लगे। (२६) राक्षस भिड़ गये और चडक्क-शस्त्र जैसे प्रहारोंसे वे ऐसा युद्ध करने लगे कि कपिसैन्य पीछे हट गया । (३०) युद्धके प्रसारसे दुःखित न होकर दूसरे बानर-सुभट उठ खड़े हुए और राक्षससैन्यका विनाश करते हुए सामने जूझने लगे। (३१) युद्धमें रावणके अपने सैन्यको पीड़ित होते देख हरत एवं प्रहस्त फौरन उठ खड़े हुए और उनका सामना करने लगे। (३२) प्रहस्त एवं हस्तने पुनः कपिवरोंका सैन्य नष्ट कर डाला। सहसा पलायन करते हुए उसको नल एवं नील सुभटोंने रोका । (३३) जिसमें उत्तम सुभट गिर रहे हैं ऐसा दोनों सेनाओंके बीच युद्ध होनेपर नलने हस्तको तथा नीलने प्रहस्तको मारडाला। (३४) उन मारेगये हस्त एवं प्रहस्तको देख, जिसमें योद्धा और घोड़ोंका विनाश हो रहा है ऐसी उनकी अपनी सेना युद्धमेंसे पीछे हट गई। (३५) जिस प्रकार विमल किरणोंवाले चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे रहित रात्रि नक्षत्रोंके समूहसे युक्त होने पर भी शोभित नहीं होती, उसी प्रकार मुख्य व्यक्तिके बिना कार्य करने पर भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। (३६)
॥ पद्मचरितमें हस्त एवं पहस्तका वध नामक सत्तावनवाँ पर्व समाप्त हुआ। १. मुइङ्गमद्दलढका-प्रत्य० । २. आहट्ठा-मु०। ३. गुजरातीमें 'पावो'
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