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________________ . . ३५६ पउमचरियं [५३. १०- खर-फरुस-निहुराए, वायाए रावणो परमरुट्ठो । अह सविळणाऽऽढतो, हणुवं अत्याणिमज्झम्मि ॥ १२८ ॥ निल्लज्ज ! वाणराहम!, दूयत्तं भूमिगोयराण तुम । कुणसि ! अविसेसियगुणप, पविरुद्ध खेयरभडाण: ॥ १२९॥ अकलीणयस्स अले. न चेव चिन्धाई होन्ति पुरिसस्स । साहेह निययनम्म. दचरियं ववहरन्तस्स ॥ १३०॥ पवर्णजएण न तुम, जाओ अन्नेण केण वि नरेण । दुचरिएहि नराहम.., निवडिओ निन्दणिज्जेहिं ॥ १३१ ॥ उवयारसहस्सेहि वि, अहिणवसम्माणदाणविभवेणं । जो मे तमंन गहिओ. सो कह अन्नेण पिप्पिहिसि ॥१३२॥ रणे समासयन्तिऽह, पञ्चमुह किंन कोल्हुया बहवे । न य सप्पुरिसा लोए, कयाइ नीयं पसाएन्ति ॥ १३३ ॥ हसिऊण मणइ हणुवो, हवइ मुहं उत्तमाण पुरिसाणं । दुबयणसङ्गरहियं अहियं धम्मत्थहिययाणं ॥ १३४ ॥ रामो लक्खणसहिओ, एही कइसेन्नपरिमिओ सिग्धं । न य रुम्भिऊण तीरइ, मेहो इव पवएण तुमे ॥ १३५ ॥ आहारेसु न तित्तो, सुसाउकलिएसु अमयसरिसेसु । जह कोइ नाइ नास, एक्कण विसस्स बिन्दूर्ण ॥ १३६ ॥ जुवइसहस्सेसु सया, न य तित्ता इन्धणेसु जह अग्गी। परनारिकयपसङ्गो, तुमं पि एवं विणस्सिहिसि ॥ १३७ ॥ पत्ते विणासकाले, नासइ बुद्धी नराण निक्खुतं । सा अन्नहा न कीरइ, पुवकयकम्मजोएणं ॥ १३८ ॥ आसन्नमरणभावो. जो परमहिलासु कुणसि संसम्गि । पच्छा नरयगइगओ, दुक्खसहस्साणि पाविहिसि ॥ १३९ ॥ नाएण तुमे रावण! स्यणासवमाइयाण सुहडाणं । पुत्ताहमेण जणिओ, कुलक्खओ अणयकारीणं ॥ १४ ॥ • सो एव भणियमेत्तो, आरुह्रो रावणो समुल्लवइ । मारेह नयरमज्झे, एवं दुबयणपन्भारं ॥ १४१॥ दढसडलपडिबद्धं, हिण्डावह घरघरेण नयरीए । कयधिक्कारो हु इमो, सोइज्जउ पवरलोएणं ॥ १४२ ॥ जं रावणेण एवं. भणिओ चिय मारुई तओ रुट्ठो। छिन्दह बन्धणनिवह, सिणेहपास पिव सुसाह ॥ १४३ ॥ हनुमानको सभाके बीच अत्यन्त तीक्ष्ण ओर कठोर वाणोसे बुरा-भला कहने लगा । (१२८) निर्लज्ज ! वानराधम ! गुणहीन ! तू खेचर-सुभटोंके विरुद्ध जमीनपर चलनेवालोंका दौत्य करता है ? (१२९) अकुलीन पुरुषके शरीरपर चिह्न नहीं होते। दुराचार करनेवाले पुरुषका दुश्चरित उसके जन्मको कह देता है। (१३०). तू पवनंजयसे पैदा नहीं हुआ, किसी दूसरेसे ही पैदा हुआ है। हे नराधम ! निन्दनीय दुराचारोंसे तू पैदा हुआ है। (१३१) हज़ारों उपकारोंते तथा नये-नये सम्मान, दान एवं वैभवसे जो मैं तुझे रख नहीं सका तो फिर दूसरे किस तरीकेसे तू रखा जायगा? (१३२) अरण्यमें बहुतसे सियार क्या सिंहका पाश्रय नहीं लेते? परन्तु इस विश्वमें सत्पुरुष कभी नीचको प्रसन्न नहीं कर सकते । (१३३) इसपर हनुमानने हँसकर कहा कि धर्ममें स्थित हृदयवाले उत्तम पुरुषोंका मुँह दुर्वचनके संसर्गसे एकदम रहित होता है। (१३४) लक्ष्मणके साथ बानर-सैन्यसे घिरे हुए राम शीघ्र ही यहाँ आयेंगे। बादलोंको रोकनेवाले पर्वतकी भाँति तुम उन्हें रोक नहीं सकोगे। (१३५) स्वादसे युक्त अमृत सदृश आहारसे तृप्त न होनेवाला कोई मनुष्य जिस तरह विषकी एक बॅदसे नष्ट हो जाता है उसी तरह ईधनसे तृप्त न होनेवाली अग्निकी भाँति सर्वदा हजारों युवतियोंसे अतृप्त रहनेवाले तुम परनारीका प्रसंग करके नष्ट हो जाओगे। (१३६-१३७) विनाशकाल उपस्थित होनेपर मनुष्यकी बुद्धि अवश्य नष्ट होती है। पूर्वकृत कर्मके योगसे वह अन्यथा नहीं की जा सकती । (१३८) तुमने जो परकीके साथ संसर्ग किया है उससे तुम जल्दी ही मृत्यु प्राप्त करोगे। बादमें नरकगनिमें जाकर हजारों दुःख प्राप्त करोगे। (१३९) हे राषण ! रत्नश्रवा आदि सुभटोंके कुलमें उत्पन्न होनेपर भी अनीतिकारी एवं अधम पुत्र तुमने कुलका विनाश किया है। (१४०) इस प्रकार कहे जानेपर क्रुद्ध हो चिल्ला उठा कि दुर्वचनसे भरे हुए इसको नगरके बीच पीटो। (१४१) मजबूत जंजीरसे बँधे हुए इसे नगरीके प्रत्येक घरके पाससे चलायो। श्रेष्ठ लोगों द्वारा अपमानित यह भले शोक करे। (१४२) रावणने जब ऐसा कहा तब रुष्ट हनुमानने, जिस तरह एक सुसाधु स्नेहका बन्धन तोड़ डालता है, उसी तरह बन्धनोंको तोद गला । (१४३) आकाशमें उड़कर हनुमानने हजारों स्तम्भोंसे व्याप्त तथा रत्नोंसे सुशोभित रावणके भवनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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