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________________ ५४. ६] ५४. लङ्कापत्थाणपव्वं 1 उप्पइऊण नहयले, थम्भसहस्सा उलं रयणचितं । भञ्जइ रावणभवणं, हणुवो चलणप्पहारेहिं ॥ तेण पडन्तेण इमा, माढं चिय जन्तिया वि तुझेसु । सायरवरेण समयं सयला आकम्पिया वसुहा बहुभवतोरणा सा, लङ्का काऊण भग्गवायारा । अगणियपडिवक्खभओ, उप्पइओ नहयलं हणुओ ॥ मन्दोयरीऍ सिट्ठो, सीयाए मारुई इमो भद्दे । । छेत्तूण बन्धणाई, वञ्चई किक्किन्धपुरहुत्तो ॥ जन्तस्स नणयघूया, घत्तर पुप्फअली सुपरितुट्ठा। जंपइ गहाऽणुकूला, होन्तु अविग्धं तुमं निच्चं ॥ इय सुचरियकम्मा होन्ति विक्खायकित्ती, अरिदढपरिबद्धा ते विमुञ्चन्ति खिप्पं । विविहसुहनिहाणं आसयन्ती विसिहं, विमलकयविहाणा जे इहं भवजीवा ॥ १४९ ॥ ॥ इय पउमचरिए हगुवलङ्का निग्गमणं नामं तिपश्वासइमं पव्वं समप्तं ॥ ५४. लंकापत्थाणपव्वं अह सो कमेण पत्तो, किबिन्धि मारुई बलसमम्गो । दिट्ठो वाणरवइणा, अब्भुट्ठेऊण आलतो ॥ १ ॥ समरबलियाण एत्तो, सम्माणं वरभडाण काऊणं । सुग्गीवेण समाण, पउमस्यासं समल्लीणो ॥ २ ॥ काऊण सिरपणामं, हणुवो चूडामणि समप्पेउं । रामस्स अपरिसेसं, साहइ वत्तं पिययमाए ॥ ३ ॥ गन्तूण मए सामिय!, दिट्ठा तुह गेहिणी वरुज्जाणे । आबद्धकेसवेणी, मलिणकवोला पगलियंसू ॥ ४॥ वामकरधरियवयणा, मुञ्चन्ती दीह उण्हनीसासे । तुह दरिसणं महानस !, एगग्गमणा विचिन्तेन्ती ॥ ५ ॥ पायडिएण सामिय!, समप्पिओ अङ्गुलीयओ तीए । वत्ता य कुसलमाई, सबा तुह सन्तिया सिट्ठा ॥ ६ ॥ १४४ ॥ १४५ ॥ १४६ ॥ १४७ ॥ १४८ ॥ पादप्रहारोंसे तोड़ डाला। (१४४) गिरते हुए उसने ऊँचे प्राकारोंसे अत्यन्त नियंत्रित होनेपर भी सागरके साथ सारी पृथ्वी को कँपा दिया । (१४५) अनेक भवन और उत्तम तोरणोंसे युक्त लंकाको भग्न परकोटेवाली करके शत्रुके भयकी परवाह किये बिना हनुमान आकाशमें उड़ा। (१४६) तब मन्दोदरीने सीतासे कहा कि, भद्रे ! बन्धनोंको तोड़कर यह मारुति किष्किन्धपुरी की ओर जा रहा है । (१४७) जाते हुए हनुमानको अत्यन्त आनन्दित सीताने पुष्पांजलि अर्पित की और कहा कि तुम्हें ग्रह सर्वदा अनुकूल हों तथा तुम सदा निर्विघ्न रहो । (१४८) इस प्रकार पुण्यकर्म करनेवाले पुरुष विख्यातयशा होते हैं। शत्रुके द्वारा मजबूती से पकड़े जानेपर भी वे जल्दी छुटकारा पाते हैं। यहाँ जो बिमल आचरण करनेवाले भव्य जीव होते हैं वे विविध सुखका निधान प्राप्त करते हैं । (१४६) ॥ पद्मचरितमें हनुमानका लंकागमन नामक तिरपनवाँ पर्व समाप्त हुआ || Jain Education International ३५७ ५४. लंकाकी ओर प्रस्थान क्रमशः गमन करता हुआ हनुमान ससैन्य किष्किन्धमें आ पहुँचा । वानरपतिने उसे देखा और खड़े होकर उसका आलिंगन किया । (१) तब युद्धमेंसे लौटे हुए सुभटवरोंका सम्मान करके सुत्रीवके साथ वह रामके पास गया । (२) सिरसे प्रणाम करके हनुमानने रामको चूड़ामणि दिया और प्रियतमा सीताका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । (३) हे स्वामी ! जा करके मैंने बालोंकी बेणी बाँधी हुई, मलिन कपोलोंवाली तथा रोती हुई आपकी गृहिणीको एक सुन्दर उद्यानमें देखा । (४) हे महायश ! बायें हाथ पर मुँह रखी हुई, दीर्घ एवं उष्ण निःश्वास छोड़ती हुई वह एकाग्रमनसे आपके दर्शनके लिए सोचा करती थी । (५) हे स्वामी ! पैरोंमें गिरकर मैंने उन्हें अँगूठी दी तथा कुशलता आदि सारी बात कही । (६) १. तोरणधरं लङ्गं काऊण भग्गपायारं - - प्रत्य० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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