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५३. हणुवलङ्कानिग्गमणपव्वं पवभिन्नमत्थया. खुडन्तदित्तमोतिया । पणट्ठदाणदुद्दिणा, पडन्ति मत्तकुञ्जरा ॥ ११२॥ विचित्तहेमनिम्मिया. विणिट्टकञ्चणट्ठया। पवनघायचुणिया, खयं गया महारहा ॥ ११३ ॥
एवं तं निययबलं. विद्धत्य इन्दई पलोएउ । बाणेहि पवणपुत्तं, छाएऊणं समाढत्तो ॥ ११४ ॥ अह मारुई वि एन्तं, सरनिवहं रिउजणेण परिमुक्कं । छिन्दइ चलम्गहत्थो, गयणे निसियद्धचन्देहिं ॥ ११५॥ घेत्तण इन्दईणं, विसजिओ मोग्गरो अइमहन्तो । हणुमेण विणिच्छूढो, सिलाएँ सिग्घं पडिवहेणं ॥ ११६ ॥ हणुयस्स इन्दइभडो, फलिहसिला-सेल-सत्तिसंघाए । मुञ्चइ चलग्गहत्थो, सो वि य एन्तं निवारेइ ।। ११७ ॥ एवं काऊण चिरं, जुझं तो इन्दईण पवणसुओ। ससियरनिहेहि सिग्धं, बद्धो च्चिय नागपासेहिं ॥ ११८ ॥ भणिया य इन्दईणं, निययभडा सङ्कलासु दढबद्धं । एयं दावेह लहु, मह पिउणो मारुई दुढें ॥ ११९ ॥ नीओ दसाणणसभं, पुरिसेहिं पुरजणेण दीसन्तो । लङ्काहिवस्स सिटुं, एस पहू! आणिओ दुट्टो ॥ १२० ॥ ते रावणस्स पुरिसा, कहन्ति हणुयस्स सन्तिया दोसा । सुग्गीव-राहवेहि, सीयाए पेसिओ दूओ ॥ १२१ ॥ सामिय! महिन्दनयरं, विद्धत्थं सो य निजिओ राया । साहूण य उवसम्गो, निवारिओ दहिमुहे दीवे ॥ १२२ ॥ गन्धबस्स महाजस! दुहियाओ तिण्णि पवरकन्नाओ। संपेसियाओ सिग्छ, इमेण रामस्स किक्किन्धि ॥ १२३ ॥ भंतण वज्जसालं, वज्जमुहो मारिओ रणे सिग्छ । एयस्स समभिलासं, अह लङ्कासुन्दरी वि गया ॥ १२४ ॥ ठविऊण निययसेन्नं, इमेण लकाएँ बाहिरुद्देसे । भग्गं पउमुज्जाणं, नाणाविहतरुलयाइण्णं ॥ १२५ ॥ भवणसहस्साई पूहू!, इमेण भग्गाई रयणचित्ताई। आलोडिया य नयरी, सवुड्ड-बालाउला सयला ॥ १२६ ॥ सुणिऊण इमे दोसे, रुट्टो लङ्काहिवो भणइ एवं । दढसङ्कलेसु बन्धह, सिग्घं चिय हत्थ-पाएसु ॥ १२७ ॥
मुक्ताफलवाले और मदके नष्ट होनेसे दुर्दिनवाले मत्त हाथी गिरने लगे। (११२) अद्भुत और सोनेके बने हुए तथा सोनेके आसन जिसमें स्थापित किये गये हैं ऐसे महारथ हनुमानके प्रहारोंसे चूर्णित हो नष्ट हो गये। (११३) इस प्रकार अपने सैन्यको विध्वस्त देख इन्द्रजित बाणोंसे हनुमानको आच्छादित करने लगा। (११४) तब चपल हाथवाला हनुमान भी शत्रुके द्वारा छोड़े गये शर-समूहको तीक्ष्ण अर्धचन्द्र बाणोंसे आकाशमें काटने लगा। (११५) इन्द्रजितके द्वारा फेंके गये बड़े भारी मुद्गरको पकड़कर हनुमानने शीघ्र ही सामनेसे शिला फेंकी । (११६) चपल हाथवाला इन्द्रजित सुभट हनुमानके ऊपर स्फटिककी शिला, पर्वत एवं शक्तियोंका समूह फेंकने लगा और आते हुए उस समुदायका निवारण करने लगा । (११७) इस तरह बहुत देर तक युद्ध करनेके पश्चात् इन्द्रजितने चन्द्रकी किरणों सरीखे नागपाशोंसे हनुमानको एकदम बाँध लिया। (११८) इन्द्रजितने अपने सुभटोंसे कहा कि शृङ्खलामें मजबूती से जकड़े गये इस मारुतिको जल्दी ही मेरे पिताके समक्ष उपस्थित करो। (११६)
नगरजनों द्वारा देखे जाते हनुमानको लोग रावणकी सभामें लाये। उन्होंने रावणसे कहा कि, हे प्रभो! इस दुष्टको हम लाये हैं। (१२०) वे पुरुष रावणको हनुमानके दोष कहने लगे कि सुग्रीव और रामके द्वारा सीताके पास यह दूत रूपसे भेजा गया है। (१२१) हे स्वामी ! इसने महेन्द्रनगर विध्वस्त किया है और उसके राजाको हरा दिया है। दधिमुख द्वीपमें इसने साधुओंका उपसर्ग दूर किया है। (१२२) हे महायश! गन्धर्वकी तीन सुंदर कन्याओंको इसने किष्किन्धिमें रामके पास भेज दिया है। (१२३) वनके किलेका नाश करके इसने युद्ध में वनमुखको मार डाला है। इसकी अभिलाषा करके लंकासुंदरी भी चली गई है। (१२४) अपनी सेनाको लंकाके बाहरी भागमें रखकर नानाविध वृक्षोंसे व्याप्त पद्मोद्यानका इसने विनाश किया है। (१२५) हे प्रभो ! इसने रत्नोंसे शोभित हज़ारों भवनोंका विनाश किया है और व्याकुल वृद्ध एवं बालकोंसे युक्त सारी नगरीको मथ डाला है। (१२६)
इन दोषोंको सुन क्रुद्ध रावणने कहा कि हाथों और पैरोंमें मज़बूत जंजीरोंसे इसे बाँधो। (१२५) अत्यन्त रुष्ट रावण
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