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३४० पउमचरियं
[४६.१२ठूण रामदेवं, वेयाली निग्गया महाविज्जा । ताहे सरेहि निहओ, पउमेणं साहसो समरे ॥ १२ ॥ सोऊण वयणमेयं, पवणसुओ भणइ साहु साहु त्ति । राघव ! सुग्गीवबलं. वसणनिमम्गं समुद्धरियं ॥ १३ ॥ सोऊण कमलनामा, पिउसोगपरिक्खयं हणुवभज्जा । सम्माणदाणजुत्तं, कुणइ तओ सा महाणन्दं ॥ १४ ॥ दूयवयणेण चलिओ, सिरिसेलो वरविमाणमारूढो । रह-तुरय-गयसमग्गो, संघटुट्ठन्तभडनिवहो ॥ १५ ॥ अह सो कमेण पत्तो, किकिन्धिपुरं च तत्थ अवइण्णो । सुग्गीवेण सहरिसं, अहियं संभासिओ हणुओ ॥ १६ ॥ पउमस्स चेट्ठियं सो, तस्स कहेऊण वाणराहिवई । रामस्स सन्नियासं, मारुदसहिओ समणुपत्तो ॥ १७ ॥ दळूण य एजन्तं, हणुवं अब्भुट्ठि) पउमणाहो । अवगूहइ परितुट्ठो, सिणेहसंभासणं कुणइ ॥ १८ ॥ लच्छीहराइएहिं, भडेहि संभासिओ पवणपुत्तो । दिन्नासणोवविट्ठो, सेसा वि जहाणुपुबीए ॥ १९ ॥ भद्दासणे निविट्ठो, पउमो वरकणयकुण्डलाहरणो । पीयम्बरपरिहाणो, तस्स ठिओ लक्खणो पासे ॥ २० ॥ सुग्गीव-अङ्ग-अङ्गय-जम्बव-नल-नील कुमुयमाईया । तह य विराहियसहिया, वेढेत्ताऽवट्ठिया रामं ॥ २१ ॥ काऊण समुल्लावं, सिरिसेलो भणइ राघवं एत्तो। कह तुज्झ सामि | पुरओ, घेप्पन्ति गुणा अपरिमेया ? ॥२२॥ वज्जावत्तधणुवरं, सहस्सऽमररक्खियं वसे ठवियं । वइदेहीसंवरणे. तुज्झ सुयऽम्हेहि माहप्पं ॥ २३ ॥ अम्हं तुमे महाजस!, हियइट्ठ। ववसियं महाकम्मं । सुम्गीवरूवधारी, जं निहओ साहसो समरे ॥ २४ ॥ उवगारिस्स महाजस !, पडिउवगारं न चेव जो कुणइ । तस्सेव भावसुद्धी, निययं पिकओ समुब्भवइ ? ॥ २५ ॥ सो सबाण वि पावो, लोद्धय-वाहाण मच्छबन्धाणं । धट्ठो घिणाविमुक्को, जो य कयग्यो इहं पुरिसो ॥ २६ ॥
सबे वि तुज्झ सुपुरिस !, पडिउवयारस्स उज्जया अम्हे । गन्तूण सामि ! लकं, रक्खसणाहं पसाएमो ॥ २७ ॥ गई। तब रामने युद्ध में बाणोंसे साहसगतिको मार डाला । (१२) यह कथन सुनकर हनुमानने कहा कि, हे राम! तुमने बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया। दुःखमें डूबे हुए सुप्रीवके सैन्यका तुमने उद्धार किया । (१३) पिताके शोकका नाश सुनकर हनुमानकी कमला नामकी पत्नीने सम्मान एवं दानसे युक्त ऐसा बड़ा भारी उत्सव मनाया। (१४)
दूतका कथन सुनकर रथ, हाथी एवं घोड़ोंके साथ तथा संघर्षके लिए उठ खड़े हुए सुभटोंके समूहसे युक्त हनुमान उत्तम विमानमें सवार हो चल पड़ा। (१५) अनुक्रमसे गमन करता हुआ वह किष्किन्धिपुरीके पास आ पहुँचा और वहाँ नीचे उतरा। सुग्रीवने हर्पपूर्वक हनुमानके साथ वार्तालाप किया। (१६) रामका चरित उसे कहकर मारुतिके साथ वानराधिपति रामके पास आया । (१७) हनुमानको आते देख राम खड़े हो गये। श्रानन्दमें आकर उन्होंने उसका आलिंगन तथा स्नेहपूर्वक उसके साथ सम्भाषण किया । (१८) लक्ष्मण आदि सुभटों द्वारा संभाषित हनुमान दिये गये आसन पर बैठा। बाक्नीके लोग यथोचित क्रमसे बैठे। (१६) सोनेके उत्तम कुण्डल एवं आभूषणोंसे युक्त तथा पीताम्बर पहने हुए राम सिंहासन पर बैठे। उनके पास लक्ष्मण खड़ा रहा । (२०) विराधित सहित सुग्रीव, अंग, अंगद, जाम्बवन्त, नल, नील और कुमुद आदि रामको घेरकर खड़े रहे। (२१)
वार्तालाप करनेके उपरान्त हनुमानने रामसे कहा कि, हे स्वामी! आपके समक्ष आपके अपरिमेय गुणोंका कैसे बखान किया जाय ? (२२) वैदेहीके स्वयंवरमें एक हजार देवों द्वारा रक्षित उत्तम वावर्त धनुष आपने वशमें किया।
आपका माहात्म्य हमने सुना है । (२३) हे महायश ! युद्ध में सुप्रीवका रूप धारण करनेवाले साहसगतिको जो आपने मारा वह आपने हमारे हृदयमें रहा हुआ महाकर्म किया है। (२४) हे महायश! जो पुरुष उपकारोंका प्रत्युपकार नहीं करता उसे भावशुद्धि कैसे हो सकती है ? (२५) जो यहाँ कृतघ्न होता है वह शिकारी, बहेलिये और धीवर-इन सबसे भी अधिक पापी, धृष्ट और निघृण होता है। (२६) हे सुपुरुष ! हम सब आपका प्रत्युपकार करनेके लिए उद्यत हैं। हे स्वामी! लङ्कामें जाकर
१. गाह !-प्रत्य० ।
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