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________________ ५०.१] ५०. महिन्ददुहियासमागमपव्वं सामिय | देहाऽऽणत्ति, तुह महिला जेण तत्थ गन्तूणं । आणेमि भुयबलेणं, पेच्छसु उक्कण्ठिओ सिग्धं ॥ २८ ॥ जम्बूणएण भणिओ, वच्छ हणूवन्त ! साहु भणियं ते । गन्तवं चेव तुमे, लकानयरी सुमणसेणं ॥ २९ ॥ भणियं च एवमेयं, मारुहणा नत्थि एत्थ संदेहो। ताहे हरिसवसगओ, पउमो सीयाएँ संदिसइ ॥ ३० ॥ मह बयणेण भणेज्जसु, हणुय ! तुमं विरहकायरिं सीयं । बह सो तुज्झ विओगे, रामो न य निबुइं लहइ ॥३१॥ जाणामि मह विओगे, मरसि तुम नत्थि एत्थ संदेहो। तह वि य समाहिहेङ, सुन्दरि ! जीयं धरिज्जासु ॥ ३२ ॥ लोगम्मि होइ दुलहो, समागमो तह य दुल्लहो धम्मो । तत्तो य दुलहयर, समाहिमरणं जिणमयम्मि ॥ ३३ ॥ तम्हा रक्खसदीवे, मा काहिसि एत्थ सुन्दरी ! कालं । जावाऽऽगच्छामि अहं, वाणरसहिओ तुह सयासं ॥ ३४॥ एवं पञ्चयकरणं, दावेज्जसु अङ्गुलेययं नेउं । चूडामणिं च मज्झं, आणेज्जसु तीऍ सन्निहियं ॥ ३५॥ नं आणवेसि सामिय !, भणिऊणं मारुई नमइ रामं । लच्छीहरं पि एवं, सेसा वि भडा समालवइ ॥ ३६॥ भणिओ चिय मारुइणा, सुग्गीवो नाव तत्थ गन्तूणं । एहामि ताव तुब्भे, एत्थं चिय अच्छियवं तु ॥ ३७॥ एव भणिऊण तो सो, आरूढो मारुई वरविमाणं । उप्पइओ गयणयलं, समयं नियएण सेन्नेणं ॥ ३८ ॥ कए वि अन्नस्सुवयारजाए, कुणन्ति जे पच्चुवयारजोगं । न तेसु तुल्लो विमलो वि चन्दो, न चेव भाणू न य देवराया ॥ ३९ ।। ॥ इय पउमचरिए हणुयपत्थाणं नाम एगणपन्नासं पव्वं समत्तं ।। ५० महिन्ददुहियासमागमपव्वं अह सो परोवयारी, पवणसुओ नहयलेण वञ्चन्तो । पेच्छइ गिरिस्स उवरिं, महिन्दनयरिं सुरपुराभं ॥ १ ॥ हम राक्षसनाथको प्रसन्न करेंगे । (२७) हे स्वामी ! आप आज्ञा दें जिससे हम वहाँ जाकर भुजाके सामर्थ्यसे आपकी पत्नीको ले आवें और उत्कण्ठित आप उन्हें शीघ्र ही देखें। (२८) इसपर जाम्बूनदने कहा कि, हे वत्स! तुमने बहुत अच्छा कहा। सुन्दर मनवाले तुम्हें लङ्का जाना चाहिए। (२६) हनुमानने कहा कि ऐसा ही हो। इसमें कोई सन्देह नहीं है। तब आनन्दमें आये हुए रामने सीताके लिए सन्देश दिया कि, हे हनुमान ! मेरे वचनसे तुम विरहकातर सीतासे कहना कि 'तुम्हारे वियोगसे राम चैन नहीं पाते । (३०-३१) मैं जानता हूँ कि मेरे वियोगसे तुम मर जाओगी, इसमें सन्देह नहीं है, फिर भी हे सुन्दरी ! चित्तकी स्वस्थताके लिए तुम प्राणोंको धारण किये रखना। (३२) लोकमें समागम दुर्लभ है, उससे भी दुर्लभ धर्म है और उससे भी अधिक दुर्लभ जिन-मतमें समाधिमरण है। (३३-३४) इसलिए, हे सुंदरी! तुम उस राक्षसद्वीपमें मर मत जाना, तबतक मैं वानर सेनाके साथ तुम्हारे पास आ जाऊँगा'। (३५) "हे स्वामी! जैसी आपकी आज्ञा'-ऐसा कहकर हनुमानने रामको प्रणाम किया। उसी प्रकार लक्ष्मण को भी प्रणाम किया तथा बाकीके सुभटोंसे बातचीत की। (३६) हनुमानने सुप्रीवसे कहा कि वहाँ जाकर जबतक मैं लौट नहीं आता तबतक तुम यहीं रहना । (३७) ऐसा कहकर वह मारुति उत्तम विमानपर आरूढ़ हुआ और अपने सैन्यके साथ आकाश में उड़ा । (३८) दूसरेके उपकार करनेपर जो प्रत्युपकारका पराक्रम करते हैं उनके समान विमल न तो चन्द्र है, न सूर्य और न देवराज इन्द्र भी। (३६) ॥ पद्मचरितमें हनुमानका प्रस्थान नामक उनचासवाँ पर्व समाप्त हुआ। ५०. महेन्द्रकन्याका समागम । आकाशमार्गसे जाते हुए उस परोपकारी पवनसुत हनुमानने पर्वतके ऊपर सुरपुर अमरावतीके सदृश कान्तिवाली १. नयरिं-प्रत्य०। २. समयं चिय निययसेन्नेणं-प्रत्य० । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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