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________________ ३३८ पउमचरियं [४८. ११०सबे नमिऊण सिला, सम्मेयं पवयं गया सिग्छ । उसभाइजिणवगणं, पडिमाउ थुणन्ति भावेणं ॥ ११० ॥ अह ते पदक्खिणेउं, भरह वरजाण-वाहणारूढा । सुहकरण-तिहि-मुहुत्ते, किक्किन्धिपुरं गया सिग्धं ॥ १११ ॥ सुत्तुट्टिया पभाए, सुग्गीवाई कइद्धया सबे । गन्तूण रामदेवं, पणमन्ति जहाणुपुषीए ॥ ११२ ।। उवविठ्ठा भणइ तओ, पउमो सबे वि वाणरा तुब्भे । अज वि य किं पडिच्छह ?, चिट्ठइ सीया तहिं दुक्खं ॥११३॥ मोतूण दीहसुत्तं, लङ्कागमणे मई कुणह सिग्छ । मा विरहतणुइयङ्गी, करिही कालं तहिं सीया ॥ ११४ ॥ जंपन्ति वओविद्धा, राघव ! निसुणेहि अम्ह वयणेकं । नइ इच्छसि वइदेही, तेण समं विग्गहो होही ॥ ११५ ॥ दुक्खेहि होइ बिजओ, रणम्मि असमाणविग्गहो एसो । विजासहस्सधारी, न य जिणसिदसाणणं सामि! ॥११६॥ तम्हा करेहि बुद्धी, अम्हं वयणेण मुयसु रणतत्तिं । अबलस्स बलियएणं, समयं को विम्गहो एत्थ ? ॥११७॥ जो सो अणुबयधरो, बिभीसणो नाम देसविक्खाओ। तस्स अलङ्घ वयणं, काही लकाहिवो नियमा ॥ ११८ ॥ घणपीइसंपउत्तो, तस्स य वयणेण बोहिओ सन्तो । अप्पेहि जणयतणयं, दसाणणो नत्थि संदेहो ॥ ११९ ।। तम्हा गवेसह लह. नयकसलं वाणराण सामत्थं । जो सह बिहीसणेणं, दहवयणं पत्तियावेइ ॥ १२० ॥ एयम्मि देसयाले, महोदही नाम खेयरो भणइ । बहुजन्तदुग्गमा सा, कया य लङ्का विसमसाला ॥ १२१ ।। एयाण मज्झयारे. एक पि य खेयरं न पेच्छामि । जो पविसिऊण लर्क, पुणरवि सिग्धं नियत्तेइ ॥ १२२ ॥ पवर्णजयस्स पुत्तो, सिरिसेलो नाम निग्गयपयावो । बल-कन्ति-सत्तिजुत्तो, सो नवरं तं पसाएइ ॥ १२३ ॥ सबेहि एवमेयं, कईहि अणुमन्निऊण तं वयणं । हणुयस्स सन्नियासं, सिरिभूई पेसिओ दूओ ॥ १२४ ॥ जिनवरोंकी प्रतिमाओंका भावपूर्वक स्तवन किया। (२१०) इसके पश्चात् उत्तम यान एवं वाहनमें आरूढ़ वे भरतक्षेत्रकी प्रदक्षिणा करके शीघ्र ही शुभ करण, तिथि एवं मुहूर्तमें किष्किन्धिपुरीमें आ गये। (१११) सोकर प्रभातमें उठे हुए सुग्रीव आदि सब कपिध्वजोंने जा करके रामको अनुक्रमसे प्रणाम किया। (११२) बैठे हुए उन सब वानरोंसे रामने कहा कि तुम अब भी क्यों बाट जोहते हो ? वहाँ सीता दुःखमें बैठी है। (११३) दीर्घसूत्रताका त्याग करके शीघ्र ही लंकागमनके लिए विचार करो, अन्यथा विरहसे तप्त शरीरवाली सीता वहाँ मर जायगी। (११४) तब वयोवृद्ध लोगोंने कहा कि, हे राघव ! हमारा एक वचन आप सुनें। यदि आप सीताको प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके (रावणके) साथ युद्ध होगा। (११५) यह युद्ध असमान लोगोंका होगा, अतः रणमें विजय बड़ी कठिनाईसे होगी। हे स्वामी! हजार विद्याओंके धारक रावणको आप जीत नहीं सकेंगे। (११६) अतः आप विचार करें। हमारे कहनेसे आप युद्धकी बातका त्याग करें। निर्बलका सबलके साथ क्या युद्ध ! (११७) अणुव्रतधारी तथा देशमें विख्यात जो विभीषण है उसका वचन रावण अवश्यमेव अलंघ्य समझता है। (११८) अत्यन्त प्रीतिसे युक्त वह रावण उसके वचनसे प्रतिबोधित हो सीताको लौटा देगा, इसमें सन्देह नहीं है। (११९) अतएव वानरोंमेंसे सामर्थ्यशाली एवं नीतिकुशल किसी वानरकी आप खोज करें जो विभीषणके साथ जाकर रावणको समझावे । (१२०) इस प्रसंगमें महोदधि नामके खेचरने कहा कि विषम प्राकारसे युक्त वह लंका यंत्रोंसे अत्यन्त दुर्गम बनाई गई है। (१२१) इनमेंसे एक भी विद्याधरको मैं नहीं देखता जो लंकामें प्रवेश करके पुनः शीघ्र वापस आ जाय । (१२२) जिसका प्रताप चारों ओर फैला है ऐसा पवनंजयका पुत्र हनुमान बल, कान्ति एवं शक्तिसे युक्त है। वही केवल उसे प्रसन्न कर सकता है। (१२३) सभी वानरोंने 'ऐसा ही है' इस तरह कहकर उस कथनका अनुमोदन किया। हनुमानके १. विरहतावियंगी-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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