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४८.१०६]
४८. कोडिसिलुद्धरणपव्वं हन्तूण य गोहेरं, गेहइ वलयं निहाणसंजुत्तं । उच्छाहनिच्छियमई, अप्पासेओ जुई पत्तो ॥ ९४ ॥ अप्पासेएण समो, रामो सीया य वलयमुत्ति ब । महइमहानिहिलम्भो, गोहेरो रावणो चेव ॥ ९५ ॥ पुरिसा निच्छियहियया, पावन्ति धणं जसं च सोक्खं च । तुम्हे वि होह सत्था, सीया अम्हेहि लहियबा ॥ ९६ ।। सोऊण उवक्खाणं, जियजम्बूणयकहासमुल्लावं । बहवे विम्हियहियया, विज्जाहरपत्थिवा जाया ॥ ९७ ॥ जम्बूणयमाईया, सबे वि य संपहारणं काउं। पुणरवि भणन्ति पउमं, एत्थ सुणे सारसब्भावं ॥ ९८ ॥ साहू अणन्तविरिओ, मरणं परिपुच्छिओ दहमुहेणं । जंपइ जो कोडिसिलं, उद्धरिही सो तुम सत्त् ॥ ९९ ॥ तो भणइ लच्छिनिलओ, तब्भेमा कुणह एत्थ विक्खेवं । दावेह मज्झ सिग्घ, तं कोडिसिलं सुरग्घवियं ॥ १०॥ सम्मन्तिऊण एत्तो, अरहस्सं वाणरिन्दमाईया । बल-नारायणसहिया, गया य रत्तिं विमाणेहिं ॥ १०१॥ पत्ता सिन्धुहेस, अवइण्णा तं सिलं तहिं द₹ । सबे वि पययमणसा, पणमन्ति पयाहिणावत्तं ॥१०२॥ कुडकुमरसेण चन्दण-विच्छुरिया अच्चिया य कुसुमेहिं । आभरणभूसियङ्गी, विभाइ देवि व कोडिसिला ॥ १०३ ॥ निम्मज्जियपरिवेढो, करयलमउलञ्जलिं सिरे रइउं । सिद्धाण नमोक्कार, करेइ लच्छीहरो एत्तो ॥ १०४ ॥ भवजलही उत्तिण्णा, जे सबसुहालयं समणुपत्ता । निययं अणन्तदरिसी, ते सिद्धा मङ्गलं मज्झं ॥ १०५ ॥ इह जे सिद्धिमुवगया, निधाणसिलाएँ साहवो धीरा । सबे वि कम्मरहिया, ते हं वन्दामि भावेणं ॥ १०६ ॥ पउमो खेयरसहिओ, आसीसं देइ लच्छिनिलयस्स । अरहन्त सिद्ध साहू, धम्मो तुह मङ्गलं होउ ॥ १०७ ॥ सा लक्खणेण एत्तो, नाणाकुसुमच्चिया सुरभिगन्धा । बाहासु समुक्खित्ता, सिद्धिसिला कुलवहू चेव ॥ १०८ ॥
साहु त्ति साहुसई, सुराण सुणिऊण अम्बरे मयं । जाया विम्हियहियया, सुग्गीवाई भडा बहवे ॥ १०९ ॥ शोभा प्राप्त की। (४) आत्मश्रेयके समान राम हैं, वलयकी मूर्ति सीता है, विशाल महानिधिसे युक्त गोहके समान रावण है। (६५) दृढ़ हृदयवाले पुरुष धन, यश एवं सुख पाते हैं। तुम भी निडर बनो। सीताको हमें प्राप्त करना ही चाहिए। (६६)
जाम्बूनदकी कथाके सम्भाषणको काटनेवाले इस आख्यानको सुनकर बहुतसे विद्याधर राजा हृदयमें विस्मित हुए। (७) जाम्बूनद आदि सबने निश्चय करके पुनः रामसे कहा कि इसमें जो सच्ची हक़ीकत है वह आप सुनें। (EE) रावणने साधु अनन्तवीर्यसे मरणके बारेमें पूछा था। इसपर उन्होंने कहा था कि जो कोटिशिलाको उठा लेगा वही तुम्हारा शत्रु होगा। (EE) तब लक्ष्मणने कहा कि तुम इसमें विक्षेप न करो। देवताओंसे परिपूर्ण वह कोटिशिला तुम मुझे जल्दी ही दिखाओ । (१००) प्रकट रूपसे इसके विषयमें विचार करके बलदेव और नारायणके सहित वानरेन्द्र आदि रातमें ही विमान द्वारा गये। (१०१) सिन्धुदेशमें पहुँच करके नीचे उतरे। वहाँ उस शिलाको देखकर सभीने श्रद्धायुक्त मनसे प्रदक्षिणा करके वन्दन किया। (१०२) चन्दनसे चर्चित शिलाकी केसरके रस एवं पुष्पोंसे पूजा की गई। आभूषणोंसे विभूषित अंगवाली वह कोटिशिला एक देवीकी भाँति शोभित हो रही थी। (१०३) स्नान करके कमर कसे हुए लक्ष्मणने सिरपर हाथ जोड़कर सिद्धोंको नमस्कार किया कि 'जो भवसागरसे पार हो गये हैं, जो सर्व सुखके धामरूप मोक्षमें पहुँच गये हैं और जो नियमतः अनन्तदर्शी हैं वे सिद्ध मेरा कल्याण करें। (१०४-५) इस सिद्धशिला पर जो मोक्षमें गये उन सभी धीर और कर्म रहित साधुओंको मैं भावपूर्वक वन्दन करता हूँ।' (१०६) खेचरोंके साथ रामने लक्ष्मणको आशीर्वाद दिया M
ETRIOSINA NAHI पा कि अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म तुझे मंगलरूप हों। (१०७) नानाविध पुष्पोंसे अर्चित और मीठी गन्धवाली वह सिद्धशिला लक्ष्मणने कुलवधूकी भाँति हाथोंसे उठा ली। (१०८) आकाशमें देवताओंका 'साधु, साधु ऐसा विपुल शब्द सुनकर सुग्रीव आदि बहुत से भट मनमें विस्मित हुए। (१०६) शिलाको नमस्कार करके सब शीघ्र ही सम्मेतपर्वत पर गये। वहाँ ऋषभादि
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जुई-प्रत्य।
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