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पउमचरियं
[४५ तिष्णि जणा तस्स सुया, अप्पासेओ तहा विहाणो य । अन्नो सिलाधरो पुण, उज्जुत्तो सबकज्जेसु ।। ७८ ॥ गिह-पसु-खेत्ताईसु य, इयरो वि तहाविहो कुणइ कम । भोगाई अप्पसेओ, नवरं पुण पुबसुकरणं ॥ ७९ ॥ कम्मं अकरेन्तो सो, पत्तो भाईहि पियरसहिएहिं । निब्भच्छिओ य सन्तो, गेहाओ निम्गओ माणी ॥ ८०॥ असमत्थो चिय कर्म, काउं सुकुमालकोमलसरीरो । संवेगसमावन्नो, मरणुच्छाहो तो जाओ ॥ ८१ ॥ अह तम्मि देसयाले, परभवसुकरण तत्थ आणीओ । एक्को पहियजुवाणो, भणइ य वयणं मह सुणेहि ॥ ८२ ॥ भाणू नामेण अहं, रायसुओ गोत्तिएहि अक्वन्तो । देसे विणिम्गओ वि य, कुसुमपुरं पाविओ कमसो ॥ ८३ ॥ आयरिएण समाणं, संसग्गी मे तओ समुप्पन्ना । दिन्नं च वेजकडयं, तेण महं सुप्पसन्नेणं ॥ ८४ ॥ एवं ओसहिवलयं, गह-भूओरग-पिसाय-वाहीओ। नासेइ छित्तमेत्तं, भणियं निस्संसयं गुरुणा॥ ८५॥ नेमित्तियआइट्ठस्स भद्द ! कालावही मह समत्तो । निययं वच्चामि पुरं, करेमि रज तहिं गन्तु ।। ८६॥ रज्जासत्तस्स इम, मा मे छड्डिहिइ वाउलमणस्स । गिण्ह तुमं वरकडयं, विणासणं सबरोगाणं ॥ ८७॥ तं गेण्हिऊण वलयं, अप्पासेओ गओ.निययगेहं । सपुरं च सुभाणू वि य, संपत्तो उत्तम रज्जं ॥ ८८॥ . ताव य नरिन्दभज्जा, अहीण दवा सरीरनिच्चेट्ठा । पंडहियनिरूविया सा, अप्पासेएण तो दिवा ॥ ८९॥ कडयस्स पसाएणं, जोवावइ सो हु तं महादेविं । संपाविओ विभूई, तत्थ नरिन्देण तुट्टेणं ॥ ९ ॥ काऊण उत्तरिज्जे, तं वलयं सरवरं समोइण्णो । गोहेरएण हरियं, ताव य सुहलक्खणं कडयं ॥ ९१ ॥ तरुवरहेम्मि बिलं, तं पविसिऊण घणसिलाछन्नं । गोहेरो कुणइ रवं. पलयमहामेहनिग्धोसं ॥१२॥ हन्तूण य गोहेर, गेण्हइ वलयं निहाणसंजुत्त । उच्छाहनिच्छियमई, अप्पासेओऽभिमाणेणं ॥ ९३ ॥
शिलाघर । (८) घर, पशु, खेत आदिका काय दूसरा तथाविध करता था, किन्तु पूर्वके पुण्यसे आत्मश्रेय केवळ भोग भोगता था। (७९) कार्य न करनेवाले उसके पास पिताके साथ भाई आये। उनसे तिरस्कृत होने पर वह स्वमानी घरसे निकल गया। (८०) सुकुमार एवं मूंदु शरीरवाले तथा कर्म करने में असमर्थ वह संसारसे उदासीन हो मरणके लिए उत्साहशील हुआ। (८१) परभवके पुण्यसे उस अवसर पर वहाँ एक युवा पथिक आया। उसने कहा कि मेरा कहना सुनो । (२) मैं भानु नामका राजकुमार हूँ। स्वजनों द्वारा देश पर आक्रमण किये जानेसे मैं निकल कर क्रमसे विचरण करता हुआ कुसुमपुरमें जा पहुँचा । (८३) वहाँ एक आचार्यके साथ मेरा संसर्ग हुआ। सुप्रसन्न उन्होंने मुझे एक वैद्य-वलय (चिकित्सक कड़ा) दिया। (८४) गुरुने मुझे कहा कि यह मोषधि-वलय छूनेमात्रसे ग्रह, भूत, नाग, पिशाच एवं व्याधियोंको अवश्य दूर करता है। (८५) हे भद्र ! नैमित्तिक द्वारा आदिष्ट मेरी समयावधि पूरी हो गई है। मैं अपने नगरकी ओर जा रहा हूँ। वहाँ जा कर मैं राज्य करूँगा। (८६) राज्यासक्त और चंचल मनवाले मुझको यह छोड़ देगा, अतः सब रोगोंका नाश करनेवाला यह उत्तम कड़ा तुम लेलो । (८७) उस कड़ेको लेकर आत्मश्रेय अपने घरकी मोर गया। सुभानु भी अपने नगरकी ओर गया और वहाँ उत्तम राज्य प्राप्त किया। (८८) उस समय सर्पके द्वारा काटी गई राजाकी पत्नी शरीरसे निश्चेष्ट हो गई थी। डोंडी पिटवाकर उसके बारेमें सूचित किया गया। श्रात्मश्रेयने उसे देखा। (८९) कडेके प्रसादसे उसने पटरानीको जिलाया। सन्तुष्ट राजाने इसे वैभव प्रदान किया। (९०) उत्तरीयमें उस कड़ेको रखकर जब वह सरोवरमें उतरा तब एक गोहने शुभ लक्षणवाले उस कड़ेका अपहरण किया। (९१) वृक्षके नीचे एक बिल था। विशाल शिलासे ढंके हुए उस बिलमें प्रवेश कर वह गोह प्रलयकालीन महामेघके सदृश आवाज करने. लगी। (९२) उस आवाज से नगरजन तथा सुभट सहित राजा भयभीत हो गये। प्रात्मश्रेयने दर्पके साथ उस वृक्षको सखाड़ फेंका। (९३) उसने गोहको मारकर निधियोंसे युक्त वह कड़ा ले लिया। उत्साहसे युक्त निश्चित बुद्धिवाले आत्मश्रेयने
१. पडुपडहनिरूविया-प्रत्य० । २. विभूई-प्रल्यः ।
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