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________________ ३२१ ४६.१६] ४६. मायापायारविउव्वणपब्वं होहि पसन्ना सुन्दरि!, में दिट्ठीदेहि सोमससिवयणे!। जेण मयणाणलो मे पसमइ तुह चक्खुसलिलेणं ॥ २ ॥ जह दिद्विपसाय मे, न कुणसि वरकमलपत्तदलनयणे!। तो पणसुत्तिमज, इमेण चलणारविन्देणं ॥३॥ अवलोइऊण पेच्छसु, ससेल वण-काणणं इमं पुहई । भमइ जसो पणवो इव, मज्झ अणक्खलियगइपसरो ॥ ४ ॥ इच्छसु मए किसोयरि!, माणेहि बहिच्छियं महाभोगं । आभरणभूसियङ्गी, देवि समं सुरिन्देणं ॥ ५॥ नं रावणेण भणिया, विवरीयमुही ठिया य तं सीया । नं परलोयविरुद्धं, कह बंपसि एरिसं वयणं । ॥ ६ ॥ अवसर दिट्ठिपहाओ, मा मे अङ्गाई छिवसु हत्येणं । परमहिलियाणलसिहापडिओ सलहोब नासिहिसि ॥ ७ ॥ परनारिं पेच्छन्तो, पावं अज्जेसि अयससंजुत्तं । नरयं पि वञ्जसि मओ, दुक्खसहस्साउलं घोरं ॥ ८॥ फरुसवयणेहि एवं, अहियं निब्भच्छिओ य सीयाए । मयणपरितावियङ्गो, तह वि न छड्डेइ पेम्म सो ॥ ९॥ ताहे लाहिवई, निययसिरे विरइऊण करकमल । पाएसु तीऍ पडिओ, तणमिव गणिओ विदेहाए ॥ १० ॥ खरदूसणसंगामे, निबत्ते ताव आगया सुहडा । सुय-सारणमाईया, जयसई चेव कुणमाणा ॥ ११ ॥ पडपडह-गीय-वाइय-रवेण अहिणन्दिओ सह बलेणं । पविसइ लकानयरिं, दसाणणो इन्दसमविभवो ॥ १२ ॥ चिन्तेइ जणयतणया, हवइऽह विज्जाहराहिवो एसो। आयरइ अमज्जाय, कं सरणं तो पवज्जामि ! ॥ १३ ॥ जाव य न एइ वता, कुसला दइयस्स बन्धुसहियस्स । ताव न भुञ्जामि अहं, आहारं भणइ जणयसुया ॥ १४ ॥ देवरमणं ति नाम, उज्जाणं पुरवरी' पुवेणं । ठविऊण तत्थ 'सीया. निययघरं पत्थिओ ताहे ॥ १५॥ सीहासणे निविट्ठो, नाणाविहमणिमऊहपज्जलिए । सीयावम्महनडिओ. न लहइ निमिस पि निवाणं ॥ १६ ॥ हो। हे शशीके समान सौम्य वदनवाली! मेरी ओर देखो, जिससे मेरी मदनाग्नि तुम्हारे नेत्ररूपी जलसे शान्त हो। (१-२) हे उत्तम कमलपत्रके दलके समान नेत्रोंवाली ! तुम यदि मुझपर दृष्टिका अनुग्रह नहीं करतीं, तो इस चरणारविन्दसे मेरे मस्तक पर प्रहार करो। (३) शैल, वन एवं उपवनोंसे युक्त इस पृथ्वीका अवलोकन करो। वहाँ पवनकी भाँति अस्खलित गति एवं प्रसारवाला मेरा यश भ्रमण कर रहा है। (४) हे कृशोदरी! मुझे तुम चाहो। आभरणोंसे अलंकृत शरीरवाली तुम सुरेन्द्र के साथ इन्द्राणीकी भाँति यथेच्छ महाभोगका उपभोग करो। (५) इस प्रकार रावणके द्वारा कही गई सीता मुंह फेर करके बैठ गई और कहने लगी कि ऐसा परलोकविरुद्ध वचन तुम क्यों कहते हो ? (६) मेरे दृष्टिमार्गसे तुम दूर हटो। अपने हायसे तुम मेरे अंगोंको मत छूओ। दूसरेकी स्त्रीरूपी आगकी लौमें पड़कर तुम पतंगेकी तरह नष्ट हो जाओगे । (७) परनारीको देखनेवाला तू पाप कमाता है और मरने पर बदनामीके साथ हजारों दुःखोंसे व्याप्त घोर नरकमें भी जायगा। (6) सीता द्वारा ऐसे कठोर वचनोंसे अत्यधिक अपमानित किये जाने पर भी मदनसे तप्त शरीरवाळे उसने प्रेम न छोड़ा । (९) तब लंकाधिपति रावण अपने सिर पर कर-कमलकी रचना करके अर्थात् मस्तक पर हाथ जोड़कर उसके पैरोमें गिरा, किन्तु सीताने उसे तृणको भाँति गिना । (१०) खरदूषणके संग्राममेंसे छूटे हुए शुक, शारण आदि सुभट जयघोष करते हुए आये । (११) विशाल ढोल एवं गीत और वाद्योंकी ध्वनि द्वारा अभिनन्दित तथा इन्द्रके समान वैभवशालो रावणने सेनाके साथ लंकानगरीमें प्रवेश किया। (१२) सीताने सोचा कि यह विद्याधर राजा है। यह अमर्यादाका आचरण करता है तो मैं किसको शरणमें जाऊँ ? (१३) जनकसुता सीताने कहा कि जबतक बन्धुसहित पतिको कुशलवार्ता नहीं मिलती तबतक मैं आहार करूँगो ही नहीं। (१४) नगरीके पूर्वभागमें देवरमण नामका एक उद्यान था। वहाँ सोताको ठहराकर रावण अपने घर पर गया। (१५) नानाविध मणियोंकी किरणांसे देदीप्यमान सिंहासन पर बैठने पर भी सीताके कारण कामसे पीड़ित वह एक क्षण भर भी चैन नहीं पाता था । (१६) १. सौर्य-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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