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________________ . ३२० पउमचरियं ॥ ३९ ॥ ४० ॥ विज्जाहराण वयणं, सोऊणं राघवो विसण्णमणो । भणइ य सायरवडियं, रयणं को लहइ नियलोए ? नूर्णं परभवनणियं, अणुहवियवं मए निययकम्मं । नियमेण तं न तीरइ, देवेहि वि अन्नहा काउं ॥ एवं परिदेवन्तं, रहुनाहं भणइ खेयरनरिन्दो । थोवदिवसेसु कन्तं दावेमि तुहं मुयसु सोयं ॥ अन्नं पि सुणसु सामिय !, निहए खरदूसणे बलब्भहिए । नाहिन्ति महाखोह, इन्दइपमुहा भडा तुझं ॥ तम्हा वच्चामु लहुं, पायालंकारपुरवरं एत्तो । भामण्डलस्स वत्ता, तत्थ लभामो सुहासीणा ॥ सामच्छिऊण एवं, राम- सुमित्ती य रहवरविलग्गा । समयं विराहिएणं, पायालपुरं चिय पविट्ठा ॥ सोऊण आगया ते, चन्दणहानन्दणो तओ सुन्दो । निययबलेण समग्गो, तेहि समं जुज्झिउं पत्तो ॥ परिणिज्जिऊण सुन्दं, चन्दोयरनन्दणेण समसहिया । खरदूसणस्स गेहे, अवट्टिया राम- सोमित्ती ॥ तत्थ वि सुरभिसुयन्धे, पासाए राघवो परिवसन्तो । सीयासमागममणो, निमिसं पि धिदं न सो लहइ ॥ तस्स घरस्साऽऽसन्ने, निणभवणं उववणस्स मज्झम्मि । तं पविसिऊण रामो, पणमइ पंडिमा धिरं पत्तो ॥ निययबलेण समग्गो, सुन्दो जणणि च गेण्हिउँ सिग्धं । लङ्कापुरिं पविट्ठो, पिइ-भाई सोगसंतत्तो ॥ एवं सङ्गा परभवकया होन्ति नेहाणुबद्धा, पच्छा दुक्खं जणियविरहा, देवमाणुस्सभावा । तम्हा नाणं जिणवरमए जाणिऊणं विसुद्धं, धम्मे चित्तं कुणह विमलं सबसोक्खाण मूलं ॥ ४५ ॥ ॥ इय पउमचरिए सीयाविप्पओगदाहपव्वं पणयालं समत्तं ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ [ ४५. ३४ ४६. मायापायारविउच्चणपव्वं सो तत्थ विमाणत्थो, वच्चन्तो रावणो जणयधूयं । दद्धुं मिलाणवयणं, जंपर महुराणि वयणाणि ॥ १ ॥ हमने कहीं नहीं देखा । (३३) विद्याधरोंका ऐसा कथन सुनकर विषण्ण मनवाले रामने कहा कि, इस जीवलोक में सागर में गिरा हुआ रत्न कौन पा सकता है ? (३४) अवश्य ही परभवमें पैदा किया हुआ मेरा कर्म मुझे ही भोगना चाहिये । वस्तुतः देव भी उसे अन्यथा करने में समर्थ नहीं हैं । (३५) इस प्रकार विलाप करते हुए रामको खेचरनरेशने कहा कि थोड़े ही दिनों में मैं आपको आपकी पत्नीके दर्शन करा दूँगा, अतः आप शोकका परित्याग करें। (३६) हे स्वामी ! आप दूसरी बात भी सुनें । बलमें अधिक ऐसे खरदूषण के मारे जानेपर इन्द्रजित आदि सुभट आपपर अत्यन्त क्षुब्ध हो जाएँगे । (३७) अतएव यहाँसे हम जल्दी ही भामण्डलके पाताललंकापुर में जायँ और वहाँ सुखपूर्वक बैठकर बातका पता लगावें । (३८) इस तरह मंत्रणा करके विराधितके साथ रथपर बैठे हुए राम और लक्ष्मणने पातालपुर में प्रवेश किया । ( ३९ ) वहाँ आये हैं ऐसा सुनकर चन्द्रनखाका पुत्र सुन्द अपनी सेनाके साथ उनसे युद्ध करनेके लिए आया । (४०) सुन्दको जीतकर विराधितके साथ राम और लक्ष्मण खरदूषण के घर में ठहरे । (४१) उस मीठी गन्धवाले प्रासादमें रहनेपर भी मनमें सीता के समागमकी इच्छा रखनेवाले राम एक निमिष मात्र भी धीरज धारण नहीं करते थे । (४२) उस घर के समीप उद्यानमें जिनमन्दिर था। रामने उसमें प्रवेश करके प्रणाम किया और इस प्रकार धीरज धारण की। (४३) पिता और भाईके शोक सन्तप्त सुन्दने माताको लेकर अपने समग्र सैन्यके साथ लंकापुरीमें शीघ्र ही प्रवेश किया । (४४) इस तरह परभवमें किये हुए सम्बन्ध प्रारम्भ में स्नेहसे बँधे हुए होते हैं, परन्तु बाद में देव एवं मनुष्य भवमें विरह उत्पन्न करके दुःखरूप होते हैं ; अतएव जिनवरके मत में विशुद्ध ज्ञान है ऐसा जानकर सब सुखोंका मूल ऐसा विमल चित्त धर्म में करो । ( ४५) ॥ पद्मचरितमें सीताके विप्रयोगका दाह नामक पैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ || Jain Education International ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७॥ ३८ ॥ ४६. माया - प्राकारका निर्माण विमानमें बैठकर जाता हुआ रावण सीताको म्लानवदना देखकर मधुर वचन कहने लगा कि, हे सुन्दरी ! तुम प्रसन्न १. पडिमं प्रत्य० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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