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पउमचरियं
[४६.१. खरदसणम्मि वहिए, ताव पलावं कुणन्ति जुबईओ। मन्दोयरिपमुहाओ. लहाहिवइस्स घरिणीओ ॥१७॥ एक्कोयरस्स चलणे, चन्दणहा गेण्हिऊण रोवन्ती । भणइ हयासा पावा, अहयं पइ-पुत्तपरिमुक्का ॥ १८ ॥ विलवन्ती भणइ तओ. लापरमेसरो अलं वच्छे ।। रुण्णेण किं व कीरद, पुवकयं आगयं कम्मं ॥१९॥ वच्छे ! जेण रणमुहे, नि-ओ खरदूसणो तुह सुओ य । तं पेच्छ वहिज्जन्तं, सहायसहियं तु अचिरेणं ।। २० ॥ संथाविऊण बहिणी, आएसं जिणहरच्चणे दाउं । पविसरइ निययभवणं, दसाणणो मयणजरगहिओ ॥ २१ ॥ मन्दोयरी पविठ्ठा, दइयं दट्टण दोहनीसासं । भणइ विसायं सामिय !, मा वच्चसु दूसणवहामि ॥ २२ ॥ अन्ने वि तुज्झ बन्धू, एत्थेव मया न सोइया तुम्हे । किं पुण दसणसोगं. सामि । अपवं समबहसि? ॥ २३ ॥ लजन्तो भणइ तओ, सुण सुन्दरि ! एत्थ सारसन्भावं । जइ नो रूसेसि तुम, तो हं साहेमि ससिवयणे! ॥ २४ ॥ सम्बुक्को जेण हओ, विवाइओ दूसणो य संगामे । सीया तस्स महिलिया, हरिऊण मए इहाऽऽणीया ॥ २५ ॥ जइ नाम सा सुरूवा, न मए इच्छइ पई मयणतत्तं । तो नत्थि जोवियं मे, तुज्झ पिए साहियं एयं ॥ २६ ॥ दइयं एयावत्थं, द₹ मन्दोयरी समुल्लवइ । महिला सा अकयत्था, जा देव! तुमं न इच्छेइ ॥ २७ ॥ अहवा सयलतिहुयणे, सा एका रूव-जोबणगुणड्डा । अइमाणगविएणं, जोइज्जइ जा तुमे सामि ! ॥ २८ ॥ केऊरभूसियासू, इमासु बाहासु करिकरसमासु । किह नऽवगृहसि सामिय !, तं विलयं सबलकारेणं ॥ २९ ॥ सो भणइ सुणसु सुन्दरि !, अस्थि इहं कारणं महागरुयं । बलगविओ वि सन्तो, जेण न गिण्हामि परमहिलं ॥३०॥ पुवं मए किसोयरि !, अणन्तविरियस्स पायमूलम्मि । साहुपडिचोइएणं, कह वि य एवं वयं गहियं ॥ ३१ ॥
कह रही थी
वत्से ! रोना
रा है उसका
उस समय खरदूषणका वध होनेसे लंकेश रावणकी मन्दोदरी आदि युवा स्त्रियाँ प्रलाप कर रही थीं। (१७) भाईके चरण पकड़कर रोती हुई चन्द्रनखा कह रही थी कि पति एवं पुत्रसे हीन और पापी मैं हताश हो गई हैं। (१८) तब बिलाप करती हुई उसे लंकाके राजा रावणने कहा कि, हे वत्से ! रोना बन्द करो। पूर्वकृत कर्मका उदय होने पर क्या किया जाय ? (१९) हे वत्से! जिसने खरदूषण तथा तुम्हारे पुत्रको मारा है उसका अपने सहायकके साथ वध तुम शीघ्र ही देखोगी। (२०) इस तरह बहनको सान्त्वना दे और जिनमन्दिरमें पूजाकी आज्ञा देकर मदन-ज्वरसे गृहीत रावणने अपने भवनमें प्रवेश किया । (२१) प्रविष्ट मन्दोदरीने दीर्घ निःश्वास डालते हुए पतिको देखकर कहा कि, हे स्वामी! खरदूषणके वधके कारण तुम दुःखित मत हो। (२२) आपके दूसरे भी भाई यहीं पर मर गये हैं, पर तुमने उनका शोक नहीं किया। हे स्वामी! तो फिर अपूर्व ऐसा दूषणका शोक तुम क्यों धारण करते हो ? (२३) तव लज्जित होता हुआ वह कहने लगा कि, हे सुन्दरी! सत्य वस्तुस्थितिके बारेमें सुनो। हे शशिवदने! यदि तुम रुष्ट न हो तो मैं कहूँ। (२४) जिसने शम्बूकका वध किया है और संग्राममें दूषणको मारा है उसकी स्त्री सीताका अपहरण करके मैं यहाँ लाया हूँ। (२५) यदि वह रूपवती मदनसे तप्त मुझे पतिरूपसे नहीं चाहेगी तो मेरे प्राण नहीं बचेंगे। हे प्रिये ! मैंने तुमसे यह कहा । (२६)
ऐसी अवस्थावाले पतिको देखकर मन्दोदरीने कहा कि हे देव! वह स्त्री दुर्भाग्यशाली है जो आपको नहीं चाहती । (२७) अथवा हे स्वामी! सारे त्रिभुवनमें वह अकेली ही रूप, यौवन एवं गुणसे सम्पन्न होगी जिसे कि तुमने अत्यन्त मान एवं अभिमानके साथ देखा है। (२८) हे स्वामी! केयूरसे भूषित तथा हाथोकी सूंद सरीखी इन भुजाओंसे तुमने बलात्कारपूर्वक उस स्त्रीका आलिंगन क्यों नहीं किया ? (२९) उसने कहा कि, हे सुन्दरी! इसमें एक बड़ा भारी कारण है जिससे बलगर्वित होने पर भी दूसरेकी स्त्रीको मैं ग्रहण नहीं करता । (३०) हे कृशोदरी! साधुके द्वारा प्रेरित मैंने पहले अनन्तवीर्यके चरणोंमें किसी तरह एक व्रत अंगीकार किया था कि रूप एवं गुणसे पूर्ण होने पर भी यदि परनारी
१. बहिणि-प्रत्यः। २. न पत्येइ-मु.।
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