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पउमचरियं
[४४.९
विज्जाहराण राया, भाया मे रावणो तिखण्डवई । दूसण ! तुम पि भत्ता, तह वि इमं पाविया दुक्खं ॥९॥ सुणिऊण तीऍ वयणं, सोगाऊरियमणो तहिं गन्तुं । खरदूसणो विवन्नं, पेच्छइ पुत्तं महीपडियं ॥ १० ॥ पडियागओ खणेणं, निययघरं रोसपूरियामरिसो। चोदसहि सहस्सेहि, सन्नद्धो पवरजोहाणं ॥ ११ ॥ एयन्तरम्मि तो सो. भणिओ चित्तप्पभेण मन्तीणं । लङ्काहिवस्स दूयं, पेसेहि इमेण अत्थेणं ॥ १२ ॥ अह रावणस्स यं, सिग्धं खरदसणो विसज्जेउं । बाहपगलन्तनेत्तो, रुयइ य सुयसोगमावन्नो ॥ १३ ॥ दूएणं परिकहिए, जाव चिय रावणो चिरावेद । चोदसहि सहस्सेहि, नोहाणं दूसणो चलिओ ॥ १४ ॥ दूसणबलस्स गयणे, सीया सुणिऊण तूरनिग्योसं । किं किं? ति उल्लवन्ती, सीया रामं समल्लीणा ।। १५ ॥ मा भाहि चन्दवयणे !, एए हंसा नहेण वचन्ता । मुञ्चन्ति मुहनिनायं, अप्पेहि धणुं पणासेमि ॥ १६ ॥ ताव य आसन्नत्थं, विविहाउहसंकुलं महासेन्नं । दिट्ट समोत्थरन्तं, गयणयले मेहवन्दं व ॥ १७ ॥ चिन्तेइ रामदेवो, किं वा नन्दीसरं सुरा एए । गन्तूण पडिनियत्ता, निययट्ठाणाई वच्चन्ति ? ॥ १८ ॥ वंसत्थलम्मि छेत्तुं, अहवा जो सो विवाइओ रणे । वेरपडिउश्चणत्थे, तस्स इमे आगया बन्धू ? ॥ १९ ॥ नूणं दुस्सीलाए, तीए गन्तूण दुट्ठमहिलाए । सिटुं च जहावत्तं, तेण इमे आगया इहई ॥ २० ॥ परिचिन्तिऊण एवं, रामो चावे सकंकडे दिट्ठी। देन्तो य लक्खणेणं, भणिओ वयणं निसामहि ॥ २१ ॥ सन्तेण मए राहव!, न य जुत्तं तुज्झ जुज्झिउं एत्तो । रक्ख इमं जणयसुर्य, अरीण समुहो अहं जामि ॥ २२ ॥ जवेल सीहनायं, वेरियपरिवेढिओ विमुञ्चे है। तवेल तुमं राघव! एज्जसु सिग्धं निरुत्तेणं ॥ २३ ॥ एव भणिऊण तो सो, सन्नद्धो गहियपहरणावरणो । अह जुज्झिउं पवत्तो, समयं चिय रक्खसभडेहिं ॥ २४॥
अखण्डितचरित्रवाली मैं यहाँ किसी तरह आ गई हूँ। (5) विद्याधरोंका राजा और त्रिखण्डपति रावण मेरा भाई है और, दूषण! तुम मेरे पति हो, फिर भी मैंने यह दुःख पाया। (९)
उसका यह कथन सुनकर शोकसे दुःखित मनवाले खरदूषणने वहाँ जाकर मरे। हुए तथा भूमि पर गिरे हुए अपने पुत्रको देखा। (१०) गुस्सेसे भरा हुआ वह क्षणभरमें अपने घर लौट आया और चौदह हजार उत्तम योद्धाभोंके साथ तैयार हो गया। (११) तब चित्तप्रभ मंत्रीने उसे कहा कि इस वृत्तान्तके साथ लंकाधिप रावणके पास दत भेजो। (१२) तब खरदूषणने शीघ्र ही रावणके पास दूत भेजा। पुत्रके शोकसे युक्त वह आँखोंसे आँसू बहाता हुआ रोने लगा। (१३) इतके द्वारा कहा गया रावण जब विलम्ब कर रहा था तब खरदूषण चौदह हजार योद्धाओंके साथ चल पड़ा। (१४) आकाशमें खरदूपणके सैन्यके वाद्योंका निर्घोष सीताने सुना। 'यह क्या है? यह क्या है? ऐसा कहती हई सीता रामके पास गई। (१५) तब 'हे चन्द्रवदने! तुम मत डरो। आकाशसे जाते हुए ये हंस अपने मुखमेंसे ऐसी ध्वनि निकालते हैं । तुम धनुष दो। मैं इनका विनाश करूँगा'-ऐसा रामने कहा । (१६) उसी समय समीपस्थ, विविध प्रकारके आयुधोंसे युक्त और मेघवृन्दकी भाँति आकाशमेंसे नीचे उतरते हुए महासैन्यको उन्होंने देखा। (१७) राम सोचने लगे कि क्या नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर लौटे हुए ये देव अपने अपने स्थानों में जा रहे हैं ? (१८) अथवा वंशस्थल बनमें जो काटकर मार डाला गया था उसके वैरका बदला लेनेके लिए उसके ये बन्धुजन यहाँ आये हैं ? (१९) अवश्य ही उस दुःशील और दुष्ट महिलाने जा करके जैसा हुआ था वैसा कहा होगा। इसीसे ये यहाँ आये हैं। (२०) ऐसा विचारकर कवचके साथ ही चाप पर दृष्टि डालते हुए रामसे लक्ष्मणने कहा कि, मेरा कहना आप सुनें। (२१) हे राम! मेरे रहते श्रापको लड़ना ठीक नहीं है। आप यहाँ सीताजीका रक्षण करें। शत्रुओंके सम्मुख मैं जाऊँगा । (२२) हे राघव! जिस समय शत्रुओंसे घिरा मैं सिंहनाद करूँ उस समय आप अवश्य ही जल्दी आना । (२३) ऐसा कहकर वह कवच पहनकर और प्रहरण-समूह धारण करके राक्षस-सुभटोंके साथ लड़ने लगा। (२४)
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