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________________ ४४.८] ३१३ ४४. रामविप्पलावपव्वं कह वि भमन्तीऍ मए, दिवा तुम्हेत्थ पुण्णजोएणं । सरणं मि असरणाए, होह फुडं दुक्खपुण्णाए । ४४ ॥ अह सा मयणवसगया, भणइ तओ राघवं कयपणामा । इच्छसु मए महाजस! जाव न पाणेहि मुश्चामि ॥ ४५ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, दोणि वि अवरोप्परं जणियसन्ना । परजुवइरहियसङ्गा, न देन्ति तीए समुल्लावं ॥ ४६॥ सा नंपिऊण बहुयं, विमुक्कदीहुण्हअंसुनीसासा । अवसरिय ताण पुरओ, निययट्ठाणं गया सिग्धं ॥ ४७ ।। सोलक्खणोतीऍगवेसणट्ट, अन्नावएसेण करेवि रणे। दिवङ्गणारूवगुणाणुरत्तो,पुणो नियत्तो विमलप्पभावो॥४८॥ ॥ इय पउमचरिए सम्बुकवणं नाम तेयालीसइमं पव्वं समत्तं ॥ ४४. सीयाहरणे रामविप्पलावपव्वं सा तत्थ रुवइ भवणे, चन्दणहा विगलियंसुसलिलोहा । विलिहियनहकक्खोरू, विमुक्ककेसी य रयमइला ॥ १ ॥ खरदूसणेण दिट्ठा, मलिया नलिणि ब गयवरिन्देणं । भणिया य साहसु तुमं, केणेयं पाविया दुक्खं ॥ २ ॥ भणइ तओ चन्दणहा, गया य पुत्रं गवेसणहाए । नवरं पेच्छामि वणे, छिन्नसिरं तं महिं पडियं ॥ ३ ॥ मारेऊण मह सुयं, केणवि पावेण सूरहासं तं । गहियं च सिद्धविज, खेयरपुज्ज महाखग्गं ॥ ४ ॥ अहमवि तं पुत्तसिरं, अङ्क ठविऊण सोगतवियङ्गी । बहुला व जह विवच्छा, रुयामि रण्णे विगलियंसू ॥ ५॥ ताव च्चिय तेण अहं, दुट्टेणं पुत्तवेरिएण पहू ।। अवगूहिया रुयन्ती, धणियं कज्जेण केणं पि ॥ ६ ॥ अहयं अणिच्छमाणी, दन्तेसु नहेसु तेण पावेणं । एयारिसं अवत्थं, एगागी पाविया रण्णे ॥ ७ ॥ ततो वि रक्खिया है, परभवनणिएण पुण्णजोएणं । अविखण्डियाचरित्ता, कह वि इहं आगया सामी ॥ ८ ॥ पूर्ण मेरे लिए तुम निश्चित शरणरूप हो । (४४) इसके बाद कामके वशीभूत वह रामको प्रणाम करके कहने लगी कि, हे महाशय ! जब तक मैं प्राण नहीं छोड़ती तब तक मेरी इच्छा करो। (४५) यह कथन सुनकर दूसरेकी स्त्रीके संगसे रहित उन दोनोंने एक-दूसरेका संकेत जानकर उसे उत्तर नहीं दिया। (४६) दीर्घ निःश्वास और गरम आँसू छोड़ती हुई वह बहुत बकबक करके उनके आगेसे दूर हो अपने स्थान पर शीघ्र ही चली गई । (४७) उस दिव्य अंगनाके रूप एवं गुणमें अनुरक्त तथा विमल प्रभाववाले लक्ष्मणने दूसरे बहानेसे जंगलमें उसकी खोज की। बादमें वह लौट आया । (४८) ॥ पद्मचरितमें शम्बूकबध नामका तेतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ४४. राम-विलाप - अश्रुजलका प्रवाह बहाती हुई, नाखूनोंसे बराल और ऊरुप्रदेश विक्षत करती हुई, बिखरे हुए केशवाली तथा धूलसे मैली वह चन्द्रनखा अपने भवनमें रोने लगी। (१) हाथीके द्वारा कुचली गई. नलिनीकी भाँति उसे देखकर खरदूषणने पूछा कि किसके द्वारा तुमने यह दुःख पाया है, यह कहो । (२) तब चन्द्रनखाने कहा कि मै पुत्रकी खोजके लिए गई थी। वनमें मैंने सिर कटे हुए उसको जमीन पर पड़ा देखा। (३) मेरे पुत्रको मारकर किसी पापीने विद्यासिद्ध तथा खेचरों द्वारा पूज्य सूहास नामकी महान् तलवार ले ली है। (४) शोकसे तप्त अंगवाली मैं भी पुत्रके उस सिरको गोदमें रखकर विवस्त्र हो गायकी तरह आँसू बहाती हुई रो रही थी। (५) हे प्रभो! उसी समय पुत्रके वैरी उस दुष्टने, किसी भी प्रयोजनसे, रोती हुई मेरा आलिंगन किया। (६) न चाहनेवाली तथा अरण्यमें एकाकी मेरी उस पापीने दाँत और नखोंसे ऐसी अवस्था कर डाली है। (७) परभवमें जनित पुण्यके योगसे ही मैं उससे बच गई हूँ। हे स्वामी! १. होह महं दुक्ख०-प्रत्य० । २. तओ नियत्तो-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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