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________________ ४४.४० ] ४४. सीयाहरणे रामविप्पलाव पव्वं २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ लच्छीहरस्स उवरिं, निसायरा विविहसत्थसंघायं । मुञ्चन्ति पबयस्स व धारानिवहं पओबाहा ॥ रयणियरकरविमुक्कं, आउहनिवह रणे निवारेउं । जमदण्डसरिसवेगे, मुञ्चइ लच्छीहरो बाणे ॥ वरमउडमण्डियाइँ, नलन्तमणि - रयणकुण्डलवराई । लक्खणसरछिन्नाई, पडन्ति कमलाई व सिराई ॥ निवडन्ति गय-तुरङ्गा, नोहा य रहा य विलुलियधओहा । संचुण्णियङ्गमङ्गा, घोररवं चेव कुणमाणा ॥ एयन्तरम्मि पत्तो, पुष्फविमाणट्ठिओ य दहवयणो । हन्तुं समुज्जयमणो, सम्बुक्करिउं घणकसाओ ॥ अहऽहोमुहं नियन्तो पेच्छइ मोहस्स कारिणी सीया । सबङ्ग सुन्दरङ्गी, सुरवइमहिलं व रूवेणं ॥ मयणाणलतवियङ्गो, एक्कमणो दहमुहो विचिन्तेइ । किं मज्झ कीरइ इहं, रज्जेण इमाऍ रहियस्स ? ॥ परिचिन्तिऊण एवं, ताहे अवलोयणाएँ विज्जाए | जाणइ ताण दहमुहो, नामं चरियं च गोत्तं च ॥ बहुए समं समरे, जुज्झइ जो एस लक्खणो हवइ । रामो सीयाऍ समं, एसो वि हु चिट्ठई रणे ॥ तं मोत्तूण रणमुहे, सीहरवं लक्खणस्स सरसरिसं । सिग्धं हरामि सीया, रामस्स वि वञ्चणं काउं मारिहि दो वि एए, अवस्स खरदूसणो बलसमग्गो । परिचिन्तिऊण एवं, सीहरवं कुणइ दहवयणो ॥ सुणिऊण सीहनायं, लक्खणफुडवियडभासियं रामो । जाओ समाउलमणो, अप्फालइ घणुवरं ताहे अच्छसुं ताव खणेकं, सुन्दरि ! एत्थं जडागिकयरक्खा । लच्छीहरस्स पासं, नाव य गन्तुं नियत्तेमि ॥ भणिऊण एव पउमो, वारिज्जन्तो वि पावसउणेसु । वेगेण रणमुहं सो, पविसइ भडमुक्कबुक्कारं ॥ ३८ ॥ एत्थन्तरम्मि सहसा, अवयरिऊणं नहाउ दहवयणो । हक्खुवइ जणयतणया, भुयासु नलिणि च मत्तगओ ॥ ३९ ॥ द रिज्जन्ती, सामियघरिणी नडाउणो रुट्ठो । नहणङ्गलेसु पहरइ, दसाणणं विउलवच्छयले ॥ ४० ॥ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ १. कासिणं सीयं । सव्वङ्गसुन्दर — प्रत्य० । २. सीयं प्रत्य० । घरिणि— प्रत्य० । जिस तरह पर्वतोंके ऊपर बादल धारा समूह छोड़ते हैं उसी तरह राक्षस लक्ष्मणके ऊपर विविध शस्त्रोंका समूह छोड़ने लगे । (२५) युद्ध में निशाचरोंके हाथसे विमुक्त आयुध समूहका निवारण करके यमदण्डके समान वेगवाले बाण लक्ष्मण छोड़ने लगा । (२६) लक्ष्मणके बाणोंसे कटे हुए सुन्दर मुकुटोंसे शोभित एवं मणि एवं रत्नमय उत्तम कुण्डलोंसे देदीप्यमान मस्तक कमलोंकी भाँति गिरते थे । (२७) टूटी हुई ध्वजाओंवाले रथ, खण्डित अंग-प्रत्यंगवाले योद्धा तथा भयंकर ध्वनि करनेवाले हाथी एवं घोड़े नीचे गिरते थे । (२८) इसी समय गुस्सेसे भरा हुआ और शम्बूकके शत्रुको मारनेमें कृतनिश्चय रावण पुष्पकविमानमें स्थित हो वहाँ आ पहुँचा । (२९) जाते हुए उसने नीचे सम्मोह करनेवाली, सर्वांग सुन्दर शरीरवाली तथा रूपमें सुरपति इन्द्रकी पत्नी जैसी सीताको देखा । (३०) मदनरूपी अ तप्त शरीरवाला दशमुख रावण एकाग्रचित्तसे सोचने लगा कि इससे रहित मैं यहाँ राज्यको लेकर क्या करूँ ? (३१) ऐसा सोचकर अवलोकना नामकी विद्याद्वारा रावणने उसका नाम चरित और गोत्र जान लिया कि युद्धमें जो बहुतोंके साथ लड़ रहा है वह लक्ष्मण है। सीताके साथ अरण्यमें जो यह बैठा है वह राम है। (३२-३३) अतः युद्धभूमिमें लक्ष्मणकी आवाज जैसा सिंहरव करके तथा रामको ठगकर सीताका शीघ्र ही अपहरण करूँ। (३४) सेनायुक्त खरदूषण इन दोनोंको अवश्य ही मार डालेगा। ऐसा सोचकर रावणने सिंहरव किया । (३५) लक्ष्मणकी आवाजके समान स्फुट और भयंकर आवाजवाला सिंहनाद सुनकर राम मनमें व्यम हो गये । तब उन्होंने धनुषका आस्फालन किया और कहा कि, हे सुन्दरी! जबतक लक्ष्मणके पास जाकर मैं वापस नहीं आ जाता तबतक जटायुके द्वारा रक्षित तुम क्षण भरके लिए यहाँ ठहरो । ( ३६-३७ ) ऐसा कहकर अशुभ शकुनों द्वारा मना किये जानेपर भी, सुभट जिसमें गर्जना कर रहे हैं ऐसे रणक्षेत्रमें रामने वेगसे प्रवेश किया। (३८) तब आकाशमेंसे सहसा नीचे उतरकर रावणने, मत्त हाथी जिस तरह कमलिनीको उठाता है उस तरह, सीताको उठाया । ( ३९ ) अपने स्वामीकी हरण की जाती पत्नीको देखकर ३. तणयं प्रत्य० । ४. हरिज्जन्ति सामिय Jain Education International ३२ ॥ ३३ ॥ For Private & Personal Use Only ३१५ www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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