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पउमचरियं
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विसयस्स मज्झयारे, आसि इहं कण्णकुण्डलं नयरं । तं भुञ्जइ बलसहिओ, नामेणं दण्डगो राया ॥ तस्स गुण-सीलकलिया, नामेणं मक्खरी महादेवी । जिणधम्मभावियमई, साहूणं वन्दणुज्जुत्ता ॥ नयराउ निम्गएणं, नरवइणा अन्नया मुणिवरिन्दो । दिट्टो पलम्बियभुवो, झाणत्थो वइरथम्भसमो ॥ घेत्तूर्ण किण्हसप्पं, कालगयं नरवई विसालिद्धं । निक्खिवइ कण्टभागे, झाणोवगयस्स समणस्स ॥ सावय इमो भुङ्गो, न फेडिओ मज्झ केणइ नरेणं । ताव य न साहरेमी, जोगं अह साहुणा मुणियं ॥ गमिऊण तओ रत्ति, पुणरवि मग्गेण तेण सो राया । अह निम्गओ पुराओ, पेच्छइ य तहट्टियं समणं ॥ फेडेइ य तं सप्पं, विहियहियओ नराहिवो एत्तो । जंपइ य अहो ! खन्ती, एरिसिया होइ समणाणं ॥ चणवडिओ नरिन्दो, तं खामेऊण निययनयरत्थो । तत्तो पभूयभत्ति, कुणइ अईवं मुणिवराणं ॥ तत्थेव परिचाओ, दट्टणं नरवई समणभत्तं । चिन्तेइ पावहियओ, एयाण वह करावेमि ॥ चइऊण निययजीयं, परदुक्खुप्पायणे कयमईओ । निम्गन्थरुवधारी, नाओ च्चिय विडपरिबाओ || अन्तेउरं पविट्टो, समयं देवीऍ कयसमुल्लायो । दिट्ठो य नरवईणं, भणिओ य इमो अचारित्तो ॥ तस्सावराहजणिए, आणत्ता किंकरा नरिन्देणं । पीलेह सबसमणे, जन्तेसु य मा चिरावेह ॥ जमदृयसच्छहेहिं, पुरिसेहिं सामियस्स वयणेणं । जन्तेहि सबसमणा, उच्छू इव पीलिया सिग्धं एक्को तत्थ मुणिवरो, गन्तूणं बाहिरं पडिनियत्तो । पत्तो य निययठाणं, वारिज्जन्तो वि लोएणं सो तत्थ पेच्छइ मुणी, जन्तापीलियतणू विवण्णे य । सहसा रोसमुवगओ, हुंकारसमं मुयइ अरिंग ॥ देसो उज्जाण - गिरिवरसमग्गो । समणेण तक्खणं चिय, सबो कोवग्गणा दड्डो देसे नामेण दण्डगो राया । तेणं चिय पुहइयले, अह भण्णइ दण्डगारण्णं ॥
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नयरं जण धणपुण्णं, जेण पुरा आसि इहं, था । (१९) उसकी गुण एवं शीलसे युक्त, जिनधर्मसे वासित अन्तःकरणवाली तथा साधुओंको वन्दन करनेमें उद्यत ऐसी मस्करी नामकी पटरानी थी । (२०) नगरमेंसे निकले हुए राजाने एकदिन हाथ नीचे लटकाये हुए, ध्यानस्थ तथा वज्र के स्तम्भके समान एक मुनिवरको देखा । (२१) मरे हुए तथा विषसे सने हुए एक काले सर्पको उठाकर राजाने ध्यानस्थित मुनिके गलेमें डाल दिया । (२२) जब तक कोई मनुष्य मुझ परसे यह सर्प नहीं हटाता, तबतक मैं योग नहीं समेदूँगा - ऐसा उस मुनिने निश्चय किया । ( २३ ) रात बिताकर पुनः उसी मार्ग से वह राजा नगरमेंसे बाहर कला और उसी प्रकार मुनिको स्थित देखा । (२४) तब विस्मित हृदयवाले राजाने उस सर्पको दूर किया और कहने लगा कि अहो ! श्रमणोंकी क्षमावृत्ति ऐसी होती है ! (२५) चरणों में गिरे हुए उस राजाने उस मुनिकी क्षमा याचना की। इसके पश्चात् अपने नगरमें रहा हुआ वह राजा मुनिवरोंकी विशेष और प्रचुर भक्ति करने लगा । (२६)
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वहाँ रहे हुए मनमें पापी एक परिव्राजकने राजाको श्रमणोंका भक्त देखकर सोचा कि इन श्रमणोंका वध कराऊँ । (२७) अपने परिव्राजक जीवनका परित्याग करके दूसरोंको दुःख देनेमें कृतनिश्रय वह भंडुआ परिवाजक निर्मन्थरूपधारी हुआ । (२८) अन्तःपुर में प्रविष्ट होकर रानीके साथ बातचीत करते हुए उसे देखकर राजाने कहा यह चारित्रहीन है । (२६) उसके अपराधसे उत्पन्न रोषवश राजाने नौकरोंको आज्ञा दी कि सब श्रमणोंको यंत्रों में पेर दो । देर मत करो। (३०) स्वामीकी आज्ञासे यमके दूत सरीखे पुरुषोंने सब श्रमणोंको ईखकी भाँति यंत्रों में शीघ्र ही पेर दिया । (३१) एक मुनिवर बाहर गये थे । वह वहाँ वापस आये । लोगों के द्वारा मना करने पर भी वह अपने स्थान पर पहुँचे । (३२) वहाँ उन्होंने यंत्रोंमें पेरे गये शरीरवाले तथा विवर्ण मुनियोंको देखा । एकदम शेषमें आये हुए उन्होंने हुंकारके साथ आग छोड़ी। (३३) जन और धनसे पूर्ण नगर तथा उद्यानों और गिरिवरोंसे व्याप्त सारा देश श्रमणने क्रोधाग्नि द्वारा जला डाला । (३४) प्राचीन कालमें इस देशमें दण्डक नामको राजा था, अतः पृथ्वीतल पर यह दण्डकारण्य कहा जाने लगा । (३५) समय बीतने पर इसमें बहुतसे पेड़ तथा हाथी, सूअर, सिंह आदि अनेक
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