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________________ ०७.५२] ४१. जडागीपक्खिउवक्खाणं ३०५ काले समइकन्ते, अइबहवे पायवा समुप्पन्ना । सत्ता य अणेगविहा, गय-सूयर-साहमाईया ।। ३६ ॥ सो दण्डगोऽतिपावो, संसारे हिण्डिऊण चिरकाल गिद्धो य समुप्पन्नो, एसो रणे घिई कुणइ ॥ ३७॥ भणिओ य साहवेणं, पक्खी ! मा कुणसु पावयं कम्मं । मा पुणरवि संसारे, हिण्डिहिसि अणन्तयं कालं ॥ ३८ ॥ तस्स परिबोहणत्थं, सुगुत्तिनामो कहेइ मुणिवसभो । निययं सुहमसुहफलं, जं दिटुं जं च अणुभूयं ॥ ३९ ॥ वाणारसीऍ राया, अयलो नामेण आसि विक्खाओ । भज्जा से होइ सिरी, सिरि व स्वेण पच्चक्खा ॥ ४० ॥ साहू सुगुत्तिनामो, पारणवेलाएँ आगओ तीए । पडिलाभिओवविट्ठो, पुत्तत्थं पुच्छिओ भणइ ॥ ४१ ॥ सिटुं च मुणिवरेणं, दो पुत्ता गब्भसंभवा तुझं । होहिन्ति निच्छएणं, भद्दे । अइसुन्दरायारा ॥ ४२ ॥ अह ते कमेण जाया, दोणि वि पुत्ता सिरीऍ देवीए । सबजणनयणकन्ता, ससि-सूरसमप्पभसिरीया ॥ ४३ ॥ जम्हा सुगुत्तिमुणिणा, आइट्टा दो वि ते समुप्पन्ना । तम्हा सुगुत्तिनामा, कया य पियरेण तुट्टेणं ॥ ४४ ॥ तावऽन्नो संबन्धो, जाओ गन्धावईएँ नयरीए । रायपुरोहियतणया, सोमस्स दुवे कुमारवरा ॥ ४५॥ पढमो होइ सुकेऊ, बीओ पुण अग्गिकेउनामो य । एवं चेव सुकेऊ, कयदारपरिग्गहो जाओ ॥ ४६॥ अह अन्नया सुकेऊ, सुहकम्मुदएण जायसंवेगो । पबइओ खायजसो, अणन्तविरियस्स पासम्मि ॥ ४७ ॥ इयरो वि अम्गिकेऊ, भाउविओगम्मि दुक्खिओ सन्तो । वाणारसिं च गन्तुं, अणुवत्तइ तावसं धम्मं ॥ ४८ ॥ सुणिऊण भायरं सो, ताक्सधम्मुज्जयं सिणेहेणं । चलिओ तत्थ सुकेऊ, तस्स य परिबोहणवाए ॥ ४९ ॥ दट्ठ ण गमणसजं, भणइ सुकेउं गुरू सुणसु एत्तो । सो तावसो विवायं, करिही समयं तुमे दुट्ठो ॥ ५० ॥ अह नण्हवीऍ तीरे, कन्ना महिलासु तीसु समसहिया । दिवसस्स एगजामे, एही चित्तंसुयनियत्था ॥ ५१ ॥ नाऊणं तं तुमे भणेज्जासु । जइ अस्थि किंपि नाणं, जाणसु कन्नाएँ सुह-दुक्खं ॥ ५२ ॥ चिन्धेसु विध प्राणी पैदा हुए । (३६) वह अतिपापी दण्डक चिरकाल पर्यन्त संसारमें गमन करके इस गीधके रूपमें पैदा हुआ और अरण्यमें अवस्थान किया। (३७) साधुने कहा कि, हे पक्षी! पाप कर्म मत कर, अन्यथा संसारमें और भी अनन्त काल तक भ्रमण करना पड़ेगा। (३८) उसके प्रतिबोधके लिए सुगुप्ति नामक मुनिवृषभने जो देखा था और जिसका अनुभव किया था ऐसा अपना शुभ और अशुभ फल कहा । (३९) वाराणसीमें अचल नामका विख्यात राजा था। उसकी रूपमें साक्षात् लक्ष्मी जैसी श्री नामकी पत्नी थी। (४०) पारनेते समय सुगुप्ति नामके मुनि आये। उसने प्रतिलाभित. और बैठे हुए उन्हें पुत्रके बारेमें पूछा । (४१) मुनिवरने कहा कि, हे भद्रे! तेरे गर्भसे निश्चय ही अत्यन्त सुन्दर आचारवाले दो पुत्र होंगे। (४२) इसके अनन्तर अनुक्रमसे श्रीदेवीको सब लोगोंकी आँखोंको आनन्द देनेवाले तथा चन्द्र एवं सूर्यके समान कान्ति और शोभावाले दो पुत्र हुए । (४३) सुगुप्ति मुनिके कहनेके अनुसार वे पैदा हुए थे, अंतः हर्षान्वित पिताने उनका नाम सुगुप्ति रखा । (४४) उसी समय गन्धावती नगरीमें एक दूसरी घटना घटी। राजपुरोहित सोमको दो कुमार थे। (४५) उनमें पहला सुकेतु और दूसरा अनिकेतु नामका था। सुकेतुने विवाह किया। (४६) एक दिन शुभकर्मके उदयसे सुकेतुको वैराग्य उत्पन्न हुआ। विख्यात यशवाले उसने अनन्तवीर्यके पास दीक्षा अंगीकार की। (४७) दसरा अग्निकेतु भी भाईके वियोगसे दुःखित हो वाराणसी गया और तापस धर्मका पालन करने लगा। (४८) तापस धर्ममें प्रवृत्त भाईके बारेमें सुनकर सुकेतु उसे प्रतिबोधित करनेके लिए स्नेहवश वहाँ गया। (४९) गमनके लिए सुकेतुको तैयार देखकर गुरुने कहा कि सुनो, वह दुष्ट तापस तुम्हारे साथ विवाद करेगा। (५०) उस समय गंगाके किनारे, दिवसका एक याम रहनेपर, तीन समवयस्क सखियों के साथ विचित्र वस्त्र पहने हुई एक कन्या आयगो। (५१) ऐसे चिह्नोंसे पहचानकर तुम उसे कहना कि यदि तुम्हें तनिक भी ज्ञान है तो कन्याके सुख-दुःखका परिज्ञान करो। (५२) वह अज्ञानी तापस उसे नहीं जाननेसे शरमिन्दा हो ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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