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________________ ४१.१८] ४१. जडागीपक्खिउवक्खाणपव्वं ३०३ तत्थ उ विमलजलाए, नईऍ काऊण मज्जणविहाणं । भुञ्जन्ति तरुफलाई, नाणाविहसाउकलियाई ॥३॥ विविहं भण्डुक्गरणं, वंस-पलासेसु कुणइ सोमित्ती । धन्नं च रणजाय, आणेइ फलाणि य बहूणि ॥ ४ ॥ अह अन्नया कयाई, साहू मज्झण्हदेसयालम्मि । तवसिरिंगवत्थियङ्गा, अवइण्णा गयणमग्गाओ ॥ ५॥ दट्ठण मुणिवरे ते, सोया साहेब राघवस्स तओ । जंपइ इमे महाजस !, पेच्छसु समणे समियपावे ॥ ६ ॥ ते पेच्छिऊण रामो, समयं सीयाएँ सबभावेणं । पणमइ पहट्ठमणसो, तिक्खुत्तपयाहिणावत्तं ॥ ७ ॥ अह ताण देइ सीया, परमन्नं साहवाण भावेणं । आरण्णजाइयाणं, गावीणं खीरनिष्फन्नं ॥ ८ ॥ नारङ्ग-फणस-इङ्ग्य-कयली-खजूर-नालिएरेसु । उवसाहियं च दिन्नं, सीयाए फासुयं दाणं ॥ ९ ॥ अह तत्थ तक्खणं चिय, पारणसमयम्मि गयणमग्गाओ । पडिया य रयणवुट्टी, गन्धोदय-कुसुमपरिमीसा ॥ १० ॥ घटं च अहो दाणं दन्दहिसहो य गरुयगम्भीरो । वित्थरह गयणमग्गे, पूरेन्तो दिसीवहे सबै ॥११॥ ताव य तत्थारण्णे, गिद्धो दट्ठ ण साहवे सहसा । तं चाइसयं परमं, ताहे जाईसरो जाओ ॥ १२ ॥ चिन्तेऊण पवतो, हा! कट्ठ माणुसत्तणम्मि मया । परिगिण्हिऊण मुक्को, धम्मो अन्नोवएसेणं ॥ १३ ॥ परिचिन्तिऊण एवं, संसारुच्छेयकारणनिमित्तं । पक्खी हरिसवसगओ, ताणं चलणोदए लुलिओ ॥ १४ ॥ सो तस्स पभावेणं, जाओ चिय रयणरासिसरिसाभो । निबत्तपारणाणं, साहूर्ण पडइ पाएसु ॥ १५॥ वेरुलियसरिसनिहसे, उवविद्या साहवो सिलावट्टे । परिपुच्छइ पउमाभो, भयवं! को एरिसो पक्खी ? ॥ १६ ॥ पढम चिय आसि इमो. दुबण्णो असुइओ दुगन्धो य । कह तक्खणेण जाओ. जलन्तमणिरयणसच्छाओ? ॥१७॥ अह भासिउं पवत्तो. सुंगुत्तिनामो मुणी मुणियभावो । एसो आसि परभवे, राया वि हु दण्डगो नाम ॥ १८॥ फल खाये । (३) लक्ष्मणने बाँस और पत्तोंसे विविध पात्र और उपकरण बनाये तथा जंगलमें उत्पन्न धान्य एवं बहुत-से फल वह लाया । (४) एक दिन मध्याह्नके समय तपकी शोभासे आच्छादित साधु आकाशमार्गसे नीचे उतरे । (५) उन मुनिवरोंको देखकर सीताने रामसे कहा कि, हे महायश ! उपशान्त पापवाले इन मुनियोंको आप देखें । (६) उन्हें देखकर सीताके साथ रामने मनमें आनन्दित हो तीन प्रदक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक वन्दन किया। (७) इसके पश्चात् सीताने उन साधुओंको अरण्य में उत्पन्न गायोंके दूधसे बनाया गया उत्तम अन्न भावपूर्वक दिया। (८) नारंगी, कटहर, इंगुदी वृक्षके फल, केले, खजूर, नारियलसे तैयार किया गया प्रासुक दान सीताने दिया । (९) पारनेके समय तत्काल ही आकाशमें से सुगन्धित जल तथा पुष्पोंसे युक्त रत्नोंकी वृष्टि वहाँ हुई । (१०) 'अहोदान !' ऐसी घोषणा हुई और गुरु एवं गम्भीर दुन्दुभिनाद सब दिशाओंको भरता हुआ आकाशमार्गमें फैल गया। (११) . उस समय उस अरण्यमें रहे हुए एक गीधने उन मुनियोंको देखा। तब उसे परम अतिशययुक्त जातिस्मरण ज्ञान हुआ। (१२) वह सोचने लगा कि अफसोस है कि मनुष्य जन्ममें मैंने धर्म अंगीकार करके दूसरेके उपदेशसे उसे छोड दिया। (१३) इस तरहसे सोचकर हर्षमें आया हुआ वह पक्षी उनके चरणोदकमें लोट पड़ा। (१४) उसके प्रभावसे रत्नकी राशि सरीखी शोभावाला वह पारना किये हुए साधुओंके चरणोंमें गिरा। (१५) वैडूर्यमणिके जैसी कान्तिवाले शिलापट पर बैठे हुए साधुओंसे रामने पूछा कि, हे भगवन् ! ऐसा पक्षी कौन है ? (१६) पहले यह खराब वर्णवाला, अशुचि और दुर्गन्धयुक्त था। प्रकाशित मणि एवं रत्नोंकी-सी सुन्दर कान्तिवाला यह एकदम कैसे हो गया ? (१७) इस पर वस्तुस्थितिके जाननेवाले सुगुप्ति नामक मुनिने कहा कि यह परभवमें दण्डक नामका राजा था। (१८) इस प्रदेशके मध्यभागमें कर्णकुण्डल नामका एक नगर था। दण्डक नामका राजा सेनाके सहित उसका उपभोग करता १. तिगुत्तिनामो-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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