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________________ ३०२ पउमचरियं [४०.७ आहरण-भूसणाई, सयणा-ऽऽसण-विविहभोयणाई च। तत्थेव आणियाई, नरवइआणाएँ पुरिसेहिं ॥ ७॥ तत्तो मज्जियजिमिया, समयं सीयाएँ राम-सोमित्ती । तत्थऽच्छिउं पवत्ता, बहुजणपरिवारिया निच्चं ॥ ८ ॥ तत्थेव वंससेले. पऊमाणत्तेण नरवरिन्देणं । जिणवरभवणाई तओ, निवेसियाई पभूयाई ॥९॥ कइलाससिहरिसरिसाई, ताई धुबन्तधयवडायाई । वीणा-वंस-मणोहरपडपडहरवोवगीयाई ॥१०॥ सोभन्ति निणिन्दाणं, पडिमाओ तेसु पवरभवणेसु । सबङ्गसुन्दराओ, नाणावण्णुजलसिरीओ ॥ ११ ॥ अह अन्नया कयाई. भणिओ रामेण तत्थ सोमित्ती । मोत्तण इमं ठाणं, अन्नं देसं पगच्छामो ॥ १२ ॥ निसुणिज्जइ कण्णरवा, महाणई तीऍ अत्थि परएणं । मणुयाण दुग्गमं चिय, तरुबहलं दण्डयारणं ॥ १३ ॥ तत्थ समुद्दासन्ने, काऊणं आलयं परिवसामो । भणिओ य लक्खणेणं, जहाऽऽणवेसि ति एवेयं ॥ १४ ॥ आउच्छिऊण रामो, सुरप्पहं निग्गओ गिरिवराओ । समयं चिय सीयाए, पुरओ काऊण सोमित्ती ॥ १५॥ रामेण जम्हा भवणोत्तमाणि, जिणिन्दचन्दाण निवेसियाणि । तत्थेव तुङ्गे विमलप्पभाणि, तम्हा जणे रामगिरी पसिद्धो ॥ १६ ॥ ॥ इय पउमचरिए रामगिरिउवक्खाणं नाम चत्तालं पव्वं समत्तं ।। ४१. जडागीपक्खिउवक्खाणं अह ते अइक्कमेडे, गामा-ऽऽगर नगरमण्डिए देसे । पत्ता दण्डारण्णे, घणगिरि-तरुसंकडपवेसे ॥ १॥ पेच्छन्ति तत्थ सरिया, कण्णरवा विमलसलिलपडिपुण्णा । फल-कुसुमसमिद्धेहिं, संछन्ना पायवगणेहिं ॥२॥ प्रकारके भोजन लाये । (७) सीताके साथ राम एवं लक्ष्मण स्नान-भोजन करके अनेक लोगोंसे युक्त हो वहीं नित्य रहने लगे। (८) तब उसी वंशपर्वतके ऊपर रामकी आज्ञासे राजाने बहुतसे जिनमन्दिर बनवाये । (९) वे कैलास पर्वतके समान ऊँचे थे, उनपर ध्वज एवं पाताकाएँ डोल रही थी तथा सुन्दर वीणा बंसी एवं ढोलके निपुण स्वरोंसे वे संगीतमय रहा करते थे। (१०) उन सुन्दर भवनों में जिनेन्द्रोंकी सर्वांगसुन्दर तथा नाना वर्णों के कारण उज्ज्वल कान्तिवाली प्रतिमाएँ शोभित हो रही थीं। (११) एक दिन वहाँ रामने लक्ष्मणसे कहा कि इस स्थानका परित्याग करके दूसरे देशमें हम जायँ । (१२) कर्णरवा नामकी एक महानदी सुनी जाती है। उससे परे मनुष्योंके लिए दुर्गम तथा वृक्षोंसे सघन ऐसा दण्डकारण्य बन पाया है। (१३) वहाँ समुद्रके पास निवासस्थान करके हम रहें। लक्ष्मणने कहा कि जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही हो । (१४) सुरप्रभको पूछकर सीताके साथ तथा लक्ष्मणको आगे करके राम पर्वतमेंसे निकले । (१५) चूंकि रामने उस ऊँचे पर्वत पर जिनेन्द्रोंके निर्मल कान्तिवाले उत्तम भवन स्थापित किये थे, इसलिए लोगोंमें वह रामगिरिके नामसे प्रसिद्ध हुआ। (१६) ॥ पद्मचरितमें रामगिरि उपाख्यान नाम चालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ४१. जटायु उपाख्यान गाँव, आकर एवं नगरोंसे शोभित देशको लाँघकर पर्वतपर उगे हुए सघन वृक्षोंके कारण जिसमें प्रवेश पाना दुष्कर था ऐसे दण्डकारण्यमें वे आ पहुँचे । (१) वहाँ उन्होंने निर्मल पानीसे भरी हुई तथा फल एवं कुसुमोंसे समृद्ध वृक्षोंसे ढकी हुई कर्णरवा नदी देखी । (२) उस निर्मल जलवाली नदीमें स्नान करके उन्होंने वृक्षोंके नाना विध स्वादवाले १. सरियं कण्णरवं० पडिपुण्णं. संछन्नं-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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