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________________ २९८ पउमचरिय [३९.८१. तत्थेव रायधूया, सिरिप्पभा नाम सिरिसमाणङ्गी । तं मग्गन्ति कुमारा, रयणरहा-ऽणुद्धरा दो वि ॥ ८१ ॥ रयणरहेण तओ सा, लद्धा सोऊणऽणुद्धरो रुट्ठो । विसयं तस्स समत्थं, बलेण सहिओ विणासेइ ॥ ८२ ॥ तत्तो रयणरहेणं, गहिउं सो चित्तरहसमं तेणं । काऊण पञ्चदण्ड, निच्छूढो निययदेसाओ ॥ ८३ ॥ खलियारण-अवमाणण-परभवनणिएण वइरदोसेण । दीहजडामउडधरो, वकलिणो तावसो जाओ ॥ ८४ ॥ ते तत्थ दो बि नियया, सहोयरा गेण्हिऊण पबज । कालगया सुरलोए, देवा जाया महिडीया ॥ ८५ ।। ते भोत्तण सुरसुह, चइया सिद्धत्थनयरसामिस्स । खेमकरस्स पुत्ता, जाया विमलाएँ गब्भम्मि ॥ ८६ ॥ सुन्दररूवावयवो, पढमो चिय देसभूसणो नाम । कुलभूसणो ति वीओ, गुणेहि जो भूसिओ निच्चं ॥ ८७ ॥ सायरघोसस्स तओ, पासे सिक्खन्ति सबविज्जाओ। नरवइसमप्पिया ते, सहोयरा ते उ कयविणया || ८८ ।। ते गुरुगिहे वसन्ता, न चेव जाणन्ति परियणं सयणं । देहुवगरणं सबं, ताण तहिं चेव सन्निहियं ।। ८९ ।। चिरकालस्स कयाई, घेत्तण उवज्झओ कुमारवरे । खेमंकरस्स पासे, गओ य संपूइओ तेणं ॥ ९० ॥ वायायणभवणत्थं, कन्नं दट्टण दो वि रायसुया । हियएण अहिलसन्ता, अणिमिसनयणा पलोयन्ति ॥ ९१ ॥ अम्हे किर महिलत्थे, चिन्तासमणन्तरं गया कन्ना। तारण समाणीया, सा एसा नत्थि संदेहो ॥ ९२॥ ताव य वन्दीण तहिं, घुटुं खेमकरो जयउ राया। विमलादेवीएँ समं, जस्सेए सुन्दरा पुत्ता ॥ ९३ ॥ वायायणम्मि लीणा, सुचिरं कमलुस्सवा वि वरकन्ना । जयउ इमा गुणनिलया, जीसे एकोयरा सूरा ॥ ९४ ॥ तं सुणिऊण कुमारा, सई वन्दिस्स सोयरा बहिणी । नणन्ति नओ दोण्णि वि, संवेगपरायणा जाया ॥ ९५ ॥ घिद्धी अहो! अकज, सबं मोहस्स विलसियं एयं । जं सोयरा वि बहिणी, अहिलसिया मयणमूढेणं ॥ ९६ ॥ परिचिन्तिऊण एयं, दोण्णि वि संजायतिबसंवेगा । सोगाउरं च जणणिं, पियरं मोत्तण पबइया ॥ ९७ ॥ एक राजकन्या थी। रत्नरथ और अनुद्धर दोनोंने उसकी मँगनी की। (८१) यादमें, रत्नरथने वह प्राप्त को है ऐसा सुनकर रुष्ट अनुद्धर सेनाके साथ उसका प्रदेश उजाड़ने लगा। (८२) तब चित्ररथके साथ उस रत्नरथने उसे पकड़ लिया और पंचदण्ड करके अपने देशमेंसे उसे निष्कासित किया । (३) तिरस्कार, अपमान और परभवजनित वैर एवं द्वेषसे वह बड़ी-बड़ी जटाओंका मुकुट धारण करनेवाला वल्कलो तापस हुआ। (८४) वे दोनों नियमधारी भाई प्रव्रज्या ग्रहण करके मरनेपर देवलोकमें बड़ी भारी ऋद्धिवाले देव हुए। (२) वे देवोंके सुखका उपभोग करके वहाँसे च्युत होनेपर सिद्धार्थनगरके राजा क्षेमंकरकी पत्नी विमलाके गर्भसे पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए । (८६) देशभूषण नामका पहला पत्र सुन्दर रूप और अवयववाला था, जबकि कुलभूषण नामका दूसरा पुत्र गुणोंसे नित्य भूषित था। (८७) राजाके द्वारा समर्पित वे दोनों विनयी भाई सागरघोषके पास सब विद्याएँ सीखने लगे। (८) गुरुके गृहमें रहते हुए वे अपने कुटुम्ब-परिवार तथा घरके बारेमें कुछ भी नहीं जानते थे। शरीरके सब उपकरण उन्हें वहीं पहुँचाये जाते थे। (८९) चिरकाल के बाद उपाध्याय उन कुमारोंको लेकर क्षेमंकरके पास गया और उसने उसकी पूजाकी । (९०) भवनके वातायनमें बैठी हुई कन्याको देखकर दोनों ही राजकुमार हृदयसे अभिलाषा करते हुए उसे अपलक नेत्रोंसे देखने लगे। (९१) सोचते ही हमारी पत्नीके लिए पिता इस कन्याको लाये हैं, इसमें सन्देह नहीं । (१२) उसी समय बन्दिजनोंने उद्घोषणा की कि जिनके ये सुन्दर पुत्र हैं उन क्षेमंकर राजाको विमलादेवीके साथ जय हो। (९३) वातायनमें चिरकालसे स्थित तथा कमलाके समान कान्तिवाली उत्तम कन्या, जिसके ये दोनों गुणोंके आवासरूप तथा शूरवीर सहोदर भाई हैं, उसकी जय हो । (९४) बन्दिजनोंका यह शब्द सुनकर कुमारोंने जाना कि यह तो हमारी सगी बहन है। इस पर वे दोनों संवेगपरायण हुए। (९५) इस अपकृत्यके लिए धिक्कार है। यह सब मोहका विलास है कि कामसे मोहित हमने सहोदरा बहनकी अभिलाषा की-ऐसा सोचकर उन दोनोंको तीब्र वैराग्य प्राप्त हुआ। शोकातुर माता-पिताको छोड़कर वे प्रबजित हुए। (६६-७) क्षेमकर राजा भी पुत्रोंके वियोगके कारण आरम्भका परित्याग करके संयम, तप और नियमों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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