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________________ ३९.८० ] ३९. देसभूसण- कुलभूसणवक्खाणं ६५ ॥ ६६ ॥ 1 ६७ ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ 1 ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ तं पेच्छिऊण मेच्छं जीवसमाणं मुणीहि सायारं । गहियं पच्चक्खाणं, पडिमाजोगो य पडिवन्नो ॥ संपत्तो य सयासं, मेच्छो हन्तुं समुज्जओ पावो । सेणावईण दिट्टो, निवारिओ विहिनिओगेणं ॥ परमो मुणिं पवुत्तो, एवं मेच्छेण हम्ममाणा ते । सेणावईण दोण्णि वि, निवारिया केण कज्जेणं ? || केवलनाणेण मुणी, परभवचरियं कइ विदियत्थो । जक्खट्टाणनिवासी, सहोयरा करिसया दो वि ॥ चाहेण गहियसन्तं, सउणं आहारकारणट्टाए । ते करिसया दयालू, मोल्लं दाऊण मोएन्ति ॥ कालं काऊण तओ, सउणो मेच्छाहिवो समुप्पन्नो । ते करिसया य दोण्णि वि, जाया उदिओ य मुदिओ य ॥ सउणो मारिज्जन्तो, जम्हा परिरक्खिओ करिसएहिं । सेणावईण तम्हा, मुणी वि परिरक्खिया तइया ॥ नं जेण निययकम्मं, समज्जियं परभवम्मि जीवेणं । तं तेण पावियबं, संसारे परिभमन्तेणं ॥ एवं उवसग्गाओ, विणिग्गया साहवो तंओ गन्तुं । सम्मेयपब ओवरि, कुणन्ति निणवन्दणं पयओ || ७३ ॥ आराहिऊण विहिणा, चिरकालं नाण- दंसण-चरितं । आउक्खयम्मि साहू, उववन्ना देवलोम्मि || ७४ ॥ वसुभूई वि बहुत्तं कालं भमिऊण नरय-तिरिएसु । पत्तो सुमाणुसतं, जडाधरो तावसो जाओ ॥ ७५ ॥ काऊणय बालतवं, जोइसवासी मुरो सम्प्पन्नो । नामेण अग्गिकेऊ, मिच्छत्तमई महापावो ॥ ७६ ॥ भरहम्मि अरिट्टपुरे, पिंयंवओ नाम नरवई वसइ । तस्स दुवे भज्जाओ, पउमाभा कञ्चणाभा य ॥ ७७ ॥ ते सुलोगाउ चुया, पउमाभाए सुया समुप्पन्ना । रयणरह-विचित्त रहा, देवकुमारोवमसिरीया ॥ ७८ ॥ चवि जोइसियसुरो, कणयाभानन्दणो समुप्पन्नो । बहुगुणनिहाणभूओ, अणुद्धरो नाम विक्खाओ || ७९ ॥ रज्जं सुयाण दाउ, पियंवओ छद्दिणाणि जिणभवणे । संलेहणाऍ कालं, काऊण सुरालय पत्तो ॥ ८० ॥ जीवनको समाप्त करनेवाले उस म्लेच्छको देखकर मुनियोंने सागार ( अपवादयुक्त ) प्रत्याख्यान ग्रहण किया और प्रतिमायोग ( कायोत्सर्ग अथवा जैनशास्त्रोक्त नियम-विशेष ) धारण किया । (६५) मारनेके लिए उद्यत वह पापी म्लेच्छ समीप श्र पहुँचा । दैवयोगसे सेनापतिने उसे देखा और रोका । (६६) रामने मुनिसे पूछा कि म्लेच्छ द्वारा मारे जाते उन दो मुनियोंकी सेनापतिने किस लिए रक्षा की १ (६७) केवलज्ञानसे रहस्यको जाननेवाले मुनिने परभवका चरित कहा कि यक्षस्थानके निवासी वे दोनों किसान भाई थे । (६८) आहार के लिए शिकारी द्वारा पकड़े गये पक्षीको उन दयालु किसानोंने मूल्य देकर छुड़ाया । (६९) उसके बाद मर करके वह पक्षी म्लेच्छराजाके रूपमें उत्पन्न हुआ और वे दोनों किसान उदित और मुदित हुए । (७०) मारे जाते पक्षीको चूँकि किसानोंने बचाया था, अतः सेनापतिने उस समय मुनियोंकी रक्षा की । (७१) परभवमें जिस जीवने जो कर्म अपने लिए उपार्जित किया होता है वह संसार में परिभ्रमण करते हुए उसको प्राप्त होता ही है । ( ७२ ) २९७ इस प्रकार उपसर्गसे युक्त साधुओंने उस सम्मेत-शिखर के ऊपर जाकर जिनेन्द्रोंको भावपूर्वक वंदन किया। (७३) चिरकाल पर्यन्त ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रकी विधिवत् आराधना करके आयुका क्षय होनेपर वे साधु देवलोक में उत्पन्न हुए । (७४) वसुभूतिने भी बहुत काल तक नरक एवं तिर्यंच गतियों में परिभ्रमण करके अच्छा मनुष्यजन्म प्राप्त किया और जटाधारी तापस हुआ । (७५) बालतप ( अज्ञानपूर्वक तप ) करके वह अग्निकेतुके नामसे मिथ्यात्वी और महापापी ज्योतिष्क देवके रूपमें उत्पन्न हुआ है । (७६) भरतक्षेत्र में आये हुए अरिष्टपुर में प्रियंवद् नामका राजा रहता था । उसकी और कनकाभा नामको दो भार्याएँ थीं। (७७) वे देवलोक से च्युत होकर पद्माभाके रत्नरथ और चित्ररथ नाम के देवकुमारोंके समान कान्तिवाले पुत्रोंके रूपमें उत्पन्न हुए। (७८) ज्योतिष्क देव मी च्युत होकर कनकाभाके बहुत से गुणों के निधानभूत ऐसे पुत्र के रूपमें पैदा हुआ और अनुद्धरके नामसे विख्यात हुआ । (७९) प्रियंवदने पुत्रोंको राज्य देकर और छः दिनतक जिन मन्दिर में संलेखना करके मरनेपर देवलोक प्राप्त किया। (०) वहीं पर लक्ष्मीके समान सुन्दर शरीरवाली श्रीप्रभा नामकी १. तहिं गन्तुं — प्रत्य० । ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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