________________
२९९
३९. ११३]
३६. देसभूसण-कुलभूसणवक्खाणं खेमंकरो वि राया, पुत्तविओगेण वज्जियारम्भो । संजम-तव-नियमरओ, मरिउं गरुडाहिवो जाओ ॥ ९८ ॥ आसणकम्पेण तओ, उवसम्गं सुमरिऊण पुत्ताणं । एत्थाऽऽगओ महप्पा, हवइ महालोयणो एसो ॥ ९९ ॥ जो वि य अणुद्धरो सो, सङ्घ घेत्तूण कोमुई नयरिं । पत्तो सुसङ्घसहिओ, जत्थ य राया सुहाधारो ॥ १०० ॥ कन्ता से हवइ रई. बीया अवरुद्धिया मयणवेगा । मुणिवरदत्तसयासे, सम्मत्तपरायणा जाया ॥ १०१॥ अह अन्नया नरिन्दो, पुरओ मयणाएँ भणइ विम्हइओ । घोरं तवोविहाणं, कुणन्ति इह तावसा एए ॥ १०२ ॥ तो भणइ मयणवेगो, इमाण मूढाण को तवो सामि!। सम्मत्तनाण-दसण-चरित्तरहियाण दुट्टाणं? ॥ १०३ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, रुट्ठो च्चिय नरवई इमं भणिओ। अचिरेण इमे पेच्छसु, पडिया एए चरित्ताओ ॥ १०४ ॥ एव भणिऊण तो सा, सगिहं संपत्थिया निसासमए । धूया य नागदत्ता, तावसनिलयं विसज्जेइ ।। १०५ ॥ गन्तूण य सा कन्ना, तावसगुरवस्स जोगजुत्तस्स । दावेऊण पवत्ता, देहं वरकुङ्कमविलित्तं ।। १०६ ॥ अद्धग्घाडा थणया, गयकुम्भाभं च नाहिपरिवेढं । विउलं नियम्वफलयं, कयलीथम्भोबमे ऊरू ॥ १०७॥ तं दळूण वरतणू ,खुभिओ चिय तावसो समुल्लवइ । बाले ! कस्स वि दुहिया ? इहागया केण कज्जेण? ॥ १०८॥ तो भणइ बालिया सा, सरणागयवच्छला ! निसामेहि । अयं दोसेण विणा, गिहाउ अम्माऍ निच्छूढा ॥ १०९॥ कासायपाउयङ्गी, अहमवि गेण्हामि तुज्झ नेवच्छं । अणुमोएहि महाजस!, सरणागयवच्छलो होहि ॥ ११० ॥ नं एव बालियाए, भणिओ चिय तावसो समुल्लवइ । को हं सरणस्स पिए! नवरं पुण तुम महं सरणं ॥ १११ ॥ एव भणिऊण तो सो, मणेण चिन्तेइ उज्जया एसा । उवगूहिउं पवत्तो, भुयासु मयणग्गितवियङ्गो ॥ ११२ ॥ मा मा न बट्टइ इम, कम्म बिहिवज्जिया अहं कन्ना। गन्तूण मज्झ नणणी. मग्गसु को अम्ह अहिगारो? ॥ ११३ ॥
निरत हुआ। मर करके वह गरुड़ाधिपति हुआ। (९८) आसनके डोलनेसे पुत्रोंका उपसर्ग याद करके वह महात्मा यहाँ आया है यह अत्यन्त दर्शनीय है। (९९)
___ जो वह संघसे युक्त अनुद्धर था वह भी संघ लेकर जहाँ शुभाधार राजा था उस कौमुदी नगरीमें आ पहुँचा । (१००) उसकी एक पत्नी रति और दूसरी पत्नी मदनवेगा थी। दत्त नामक मुनिवरके पास वे सम्यकत्व परायण हुई। (१०१) एक दिन विस्मित राजाने मदनाके आगे कहा कि यहाँ पर ये तापस घोर तप करते हैं। (१०२) तब मदनवेगाने कहा कि, हे स्वामी! सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्रसे हीन इन मूढ़ और दुष्टोंका तप कैसा ? (१०३) ऐसा वचन सुनकर रुष्ट हुए राजाको उसने कहा कि आप शीघ्र ही इन्हें चारित्रसे भ्रष्ट देखोगे । (१०४) ऐसा कहकर वह अपने भवनमें गई और रातके समय नागदत्ता नामकी अपनी लड़कीको तापसोंके निवासस्थानमें भेजा। (१०५) जा करके वह कन्या योगयुक्त तापसगुरुओंको उत्तम कुंकुमसे लिप्त देह दिखाने लगी। (१०६) उसके स्तन आधे खले हए थे, नाभिका घेरा हाथीके गण्डस्थलके सदृश था, नितम्बप्रदेश विशाल था और जाँचें कदलीस्तम्भ जैसी थीं। (१०७) उस सुन्दर शरीरवालीको देखकर क्षुब्ध तापस पूछने लगा कि, हे बाले ! तू किसकी लड़की है और किसलिए यहाँ आई है? (१०८) इसपर उस बालिकाने कहा कि, हे शरणगतवत्सल! आप सुनें। बिना दोषके माताने मुझे निकाल दिया है। (१०९) काषाय वखोंसे अंग ढकनेवाली मैं आपके वन ग्रहण करना चाहती हूँ। हे महाशय ! आप अनुमति दें। आप शरणमें आये हुए पर वात्सल्य दिखळावें। (११०) बालाके ऐसा कहनेपर तापसने कहा कि, हे प्रिये ! मैं शरण देनेवाला कौन ? केवल तुम ही मेरे लिए शरणरूप हो। (१११) ऐसा कहकर उसने मनमें सोचा कि यह सरल है। मदनाग्निसे तपे हए शरीरवाला वह भुजाओंसे उसे आलिंगन देनेके लिए प्रवृत्त हुआ । (११२) नहीं, नहीं ; ऐसा कर्म करना योग्य नहीं है। मैं कन्या विधि द्वारा वर्जित हूँ। मेरा अधिकार क्या है? जा करके मेरी मातासे मँगनी करो। (११३) ऐसा कहनेपर वह लड़कीके साथ राजाके भवनमें गया। पैरोंमें
१. कोमुई--प्रत्य० । २. वरतणु-प्रत्य० । ३. जणणिं--प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org