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________________ .२८२ पउमरियं [३६.९तम्मि पुरे नरवसभो, महीहरो नाम निग्गयपयावो । महिला से इन्दाणी, धूया वि य तस्स वणमाला ॥ ९॥ बालत्तणमाईए, सा कण्णा लक्खणाणुगुणरत्ता । दिज्जन्ती विहु नेच्छइ, अत्रं पुरिसं सुरूवं पि ॥ १० ॥ पवइयम्मि दसरहे, विणिग्गए राम-लक्खणे सोउं । पुहईधरो विसण्णो, दुहियाएँ वरं विचिन्तेइ ॥ ११ ॥ मुणिओ य इन्दनयरे, नरिन्दवसहस्स बालमित्तस्स । पुत्तो सुन्दररूवो, निरूविया तस्स सा कन्ना ॥ १२ ॥ तं वित्तन्तं नाऊण. बालिया लाखणं अणुसरन्ती। भणइ य मरणं पि वरं, न य मे कर्ज त अन्नेणं ॥ १३ ॥ अन्नस्स दिज्जमाणी, काऊणं मरणनिच्छयं हिययं । गन्तूण भणइ पियरं, करेमि वणदेवयापूयं ॥ १४ ॥ अणुमन्निया य तेणं, पोसहियानिग्गया सह जणेणं । रयणिसमयम्मि पत्ता, जत्थुद्देसं ठिया ते उ॥ १५ ॥ वणदेवयाएँ पूर्य, काऊणं जणवए पसुत्तम्मि । सिबिराउ विणिग्गन्तुं, तं चिय वडपायवं पत्ता ॥ १६ ॥ एकद्देसम्मि ठिया. तम्मि य वडपायवे अइमन्ते । लच्छीहरेण दिट्ठा, इमाणि वयणाणि जंपन्ती ॥ १७॥ जा एत्थ तरुनिवासी, सुणेउ वणदेवया इमं वयणं । लच्छीहरस्स गन्तुं, कहेज मह मरणसंबन्धं ॥ १८ ॥ जह तुज्झ विओगेणं, वणमाला दुक्खिया अणन्नमणा । उल्लम्बिऊण कण्ठं, कालगया रण्णमज्झम्मि ॥ १९ ॥ भणिऊण वयणमेयं, वत्थमयं पासयं करिय कण्ठे । साहाएँ बन्धमाणी, गन्तुं सोमित्तिणा गहिया ॥ २० ॥ अवगूहिऊण जंपइ, अहयं सो लक्षणो विसालच्छी । समदिट्टीऍ पलोयसु, अधिई सोगं च मोत्तणं ॥ २१ ॥ सो लक्खणेण पासो, कण्ठाओ फेडिओ तुरन्तेणं । आसासिया य बाला, धणियं वयणामएणं तु ॥ २२ ॥ सुन्दररूवेण तओ, मुणेइ सा लक्खणं सुविम्हइया । किं वणदेवीएँ इमो, तुट्टाएँ कओ पसाओ मे ? ॥ २३ ॥ तो लक्खणेण नीया, वणमाला राघवस्स पामूले । पणमइ कयञ्जलिउडा, सीयासहियं पउमनाहं ॥ २४ ॥ उस नगरमें बाहर फैला हुआ प्रतापवाला महीधर नामका राजा था। उसकी स्त्री इन्द्राणी तथा पुत्री बनमाला थी। (९) बचपनसे ही वह कन्या लक्ष्मणके गुणोंमें अनुरक्त थी। दिये जानेपर भी दूसरे सुन्दर पुरुषको वह नहीं चाहती थी। (१०) दशरथकी प्रव्रज्या तथा राम-लक्ष्मणके बहिर्गमनके बारेमें सुनकर विषण्ण राजा पुत्रीके लिए वरकी चिन्ता करने लगा। (११) इन्द्रनगरमें राजाओंमें वृषभके समान उत्तम बालमित्रका सुन्दर रूपवाला एक पुत्र है ऐसा जानकर उसके पास उस कन्याका उसने जिक्र किया। (१२) उस वृत्तान्तको जानकर लक्ष्मणका स्मरण करती हुई वह कन्या कहने लगी कि मर जाना अच्छा है, पर दूसरे पुरुषसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । (१३) दूसरेको दी जानेवाली उसने हृदयमें मरणका निश्चय किया और पितासे जाकर कहा कि मैं वनदेवताकी पूजा करना चाहती हूँ। (१४) बन्धनमें पड़ी हुई वह उससे अनुमति प्राप्तकर सखीजन के साथ निकली और जिस प्रदेशमें वे राम आदि ठहरे थे वहाँ रात्रिके समय जा पहुँची । (१५) वनदेवताकी पूजा करके जनपद जब सोया हुआ था तब शिबिरसे निकलकर वह उसी बरगदके पेड़के पास गई । (१६) उस विशाल बरगद के पेड़के एक भागमें स्थित वह लक्ष्मणके द्वारा ऐसे वचन कहती हुई सुनी गई कि यहाँ पेड़पर रहनेवाले जो वनदेवता हो वह मेरा यह कथन सुने। वह लक्ष्मणके पास जाकर मेरे मरणका वृत्तान्त कहे कि दूसरे किसीमें मन न लगानेवाली दुःखित वनमाला तुम्हारे वियोगसे गले में फाँसी लगाकर जंगलमें मर गई। (१७-९) ऐसा वचन कहकर और गलेमें वस्त्रका फंदा डालकर शाखासे बाँधती हुई उसे लक्ष्मणने जाकर पकड़ लिया और उसे आलिंगन करके कहा कि, हे विशालाक्षी! मैं वह लक्ष्मण हूँ। अधिक शोकका त्याग करके समदृष्टिसे देखो। (२०-१) लक्ष्मणने शीघ्र ही गलेसे वह पाश दूर किया और वचनामृतसे उस कन्याको खूब आश्वासन दिया । (२२) तब अत्यन्त विस्मित उसने सुन्दर रूपके कारण लक्ष्मणको पहचान लिया। वह सोचने लगी कि क्या तुष्ट वनदेवीने मुझपर यह अनुग्रह किया है ? (२३) इसके पश्चात् लक्ष्मण वनमालाको राघवके चरणोंके पास ले गया। हाथ जोड़कर उसने सीता सहित रामको प्रणाम किया । (२४) अपने जैसी दूसरी स्त्रीको देखकर सीताने हँसकर लक्ष्मणसे कहा कि कुमार! चन्द्रके १. निग्गहिया निग्गया-प्रत्य। २. उब्बन्धिऊण-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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