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________________ ३६.८] २८१ ३६. वणमालापव्व अट्ठारस य सहस्सा, घेणूणं तं च गेहिणी' मोत्तुं । नन्दजइस्स सयासे, कविलो दिक्खं समणुपत्तो ॥ ७९ ॥ बारसविहं तवं सो, कुणमाणो मारुओब नीसङ्गो । विहरइ मुणी महप्पा, गामा-ऽऽगरमण्डियं वसुहं ॥ ८० ॥ जो कविलस्स इमं तु पयत्थं, एक्कमणो निसुणेइ मणुस्सो। सो उववाससहस्सविहाय, भुञ्जइ दिबसुहं विमलङ्गो ॥ ८१ ।। ।। इय पउमचरिए कविलोवक्खाणं नाम पञ्चतीसइमो उद्देसओ समत्तो।। ३६. वणमालापव तत्तो कमेण ताणं, तत्थऽच्छन्ताण पाउसो कालो । अहिलविओ सुहेणं, ताव य सरओ समणुपत्तो ॥ १ ॥ भणइ तओ नक्खवई, पउमं पत्थाणववसिउच्छाहं । जो कोइ अविणओ मे, सो देव तुमे खमेयबो ॥ २ ॥ एव भणिओ पउत्तो, पउमो जक्खाहिवं महुरभासी । अम्हाण वि दुच्चरियं, खमाहि सवं निरवसेसं ॥ ३ ॥ अहिययरं परितुट्ठो, इमेहि वयणेहि रामदेवस्स । चलणेमु पणमिऊणं, हारं च सयंपभं देइ ॥ ४ ॥ मणिकुण्डलं च दिवं, देवो उवणेइ लच्छिनिलयस्स । सीयाएँ सुकल्लाणं तुट्टो चूडामणि देई ॥ ५॥ वीणा य इच्छियसरा, दाऊणं ताण उस्सुगमणेणं । मायाविणिम्मिया सा, अवहरिया तक्खणं नयरी ॥ ६ ॥ तत्तो विणिग्गया ते, वच्चन्ति फलासिणो जहिच्छाए । रण्णं वइक्कमेउं, विजयपुरं चेव संपत्ता ॥ ७ ॥ अत्थमिए दिवसयरे, जाए तमसाउले दिसायक्के । नयरस्स समन्भासे, अवट्ठिया उत्तरवरेणं ॥ ८ ॥ लाख गायों तथा पत्नीका परित्याग करके नन्दपति मुनिके पास कपिलने दीक्षा अंगीकार की। (७६) पवनकी तरह निःसंग वह महात्मा मुनि बारह प्रकारका तप करता हुआ ग्राम एवं नगरोंसे मण्डित वसुधामें विहार करने लगा। (50) जो मनुष्य कपिलका यह प्रशस्त आख्यान ध्यान लगाकर सुनेगा वह विमल शरीरवाला होकर एक हजार उपवाससे मिलनेवाले दिव्य सुखका उपभोग करेगा। (८१) ॥ पद्मचरितमे कपिल-उपाख्यान नामक पैंतीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ । ३६. वनमाला तब वहाँ रहते हुए उनका वर्षाकाल क्रमशः सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। उसके पश्चात् शरत्काल आया। (१) उस समय यक्षपतिने प्रस्थानके लिए प्रयत्न करनेवाले रामसे कहा कि, हे देव ! यदि कोई मेरा अविनय हुआ हो तो उसे श्राप क्षमा करें । (२) इस प्रकार कहे गये रामने मधुरभाषी यक्षाधिपतिसे कहा कि हमारा भी सारा दुश्चरित तुम पूर्णतः क्षमा करो। (३) इन वचनोंसे बहुत अधिक प्रसन्न यक्षाधिपतिने रामदेवके चरणों में प्रणाम करके स्वयंप्रभ नामका हार दिया । (४) देव लक्ष्मणके लिए दिव्य मणिकुण्डल लाया और तुष्ट उसने सीताको कल्याणकारी चूड़ामणि रत्न दिया। (५) इच्छित स्वरवाली वीणा उन्हें देकर उत्कंठित मनवाले उसने मायासे विनिर्मित उस नगरीका उसी क्षण संवरण किया। (६) वहाँसे निकले हुए वे फल भक्षण करते हुए इच्छानुसार विचरण करनेलगे और अरण्यको पारकर विजयपुरके पास आ पहुँचे। (७) सूर्यके छिपनेपर और सभी दिशाओं के अंधकारसे छानेपर एक अति सुन्दर नगरके समीप वे ठहरे। (6) १. गेहिणि-प्रत्य०। २. नन्दवइस्स-मु.। ३. अह लंघिओ-प्रत्य० । ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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