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________________ २७८ पउमचरियं अन्नं पि विप्प ! निसुणसु, पउमो दबं नहिच्छियं देइ । तेण विसा पडिभणिया, कहेहि तदरिसणोवायं ॥ सा नक्खिणी सुंनामा, भणइ य भो विप्प ! सुणलु मह वयणं । साहेमि तं उवायं, जेण तुमं पेच्छसी पउमं ॥ गयवर- सीहमुहेहिं, वेयालबिही सिएहि बहुएहिं । नयरीऍ तिण्णि दारा, रक्खिज्जन्ते य पुरिसेहिं ॥ बहारस्स बहिं, जं पेच्छसि धय-वडायकयसोहं । तं निणहरं महन्तं नत्थ सुसाहू परिवसन्ति ॥ जो कुणइ नमोकारं, अरहन्ताणं विसुद्धभावेणं । सो पविसइ निबिग्धं, लहइ वहं जो उ विवरीओ ॥ जो पुण अणुबयधरो, जिणधम्मुज्जयमणो सुसीलो य । सो पूइज्जइ पुरिसो, पउमेण अणेगदद्वेणं ॥ ऊण वयमेयं वच्च विप्पो थुई पउञ्जन्तो । संपत्तो जिणभवणं, पणमह य तहिं जिणवरिन्दं ॥ तं पणमिऊण साहू, पुच्छइ अरहन्तदेसियं धम्मं । समणो वि अपरिसेसं, साहेइ अणुबयामूलं ॥ तं सोऊण दियवरो, धम्मं गेहइ गिहत्थमणुचिण्णं । जाओ विसुद्धभावो, अणन्नदिट्ठी परमतुट्टो ॥ असणाइएण भत्तं, लद्धं जह पाणियं च तिसिएणं । तह तुज्झ पसाएणं, साहब ! धम्मो मए लद्धो एव भणिऊण समणं, पणमिय सबायरेण परितुट्टो । परिओसनणियहियओ, निययघरं पत्थिओ विप्पो ॥ भणइ पहिट्ठो कविलो, सुन्दरि ! साहेमि जं मए अज्जं । दिट्टं अदिट्ठपुढं सुयं च गुरुधम्मसबस्सं ॥ समिहाहेउं संपत्थिएण, दिट्टा पुरी मए रण्णे । महिला य सुन्दरङ्गी, नूणं सा देवया का वि ॥ परिपुच्छियाएँ सिहं, तीए मह एस विप्प ! रामपुरी । सावयजणस्स पउमो, देइ किलाणन्तयं दबं ॥ समणस्स सन्नियासे, धम्मं सुणिऊण सावओ जाओ । परितुट्टो हैं सुन्दरि !, दुल्लहलम्भो मए लद्धो ॥ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ Jain Education International ३३ ॥ ३४ ॥ For Private & Personal Use Only ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ [ ३५.३३ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ यथेच्छ द्रव्य देते हैं । इसपर उसने उस स्त्रीसे पूछा कि उनके दर्शनका उपाय कहो । (३३) उस सुनामा नामकी यक्षिणीने कहा कि, हे विप्र ! तुम मेरा कहना सुनो। मैं वह उपाय कहती हूँ जिससे तुम रामके दर्शन कर सको । (३४) इस नगरीके तीनों दरवाजोंकी रक्षा हाथी एवं सिंह जैसे मुखवाले तथा वेतालके समान भयंकर ऐसे बहुतसे पुरुष कर रहे हैं। (३५) पूर्व द्वारके बाहर जो तुम देखते हो वह ध्वजा एवं पताकाओं से जिसकी शोभा को गई है ऐसा विशाल जिनमन्दिर है, जिसमें साधु रहते हैं । (३६) जो विशुद्ध भावके साथ अरिहन्तोंको वन्दन करता है वह नगर में निर्विघ्न प्रवेश पाता है और जो इसके विपरीत आचरण करता है उसका वध होता है । (३७) और जो अणुव्रत धारण करनेवाला हो, जिनप्रोक्त धर्म में जिसका मन उद्यत हो और जो सुशील हो उसका राम अनेक प्रकार के द्रव्य द्वारा सम्मान करते हैं । (३८) ऐसा कथन सुनकर वह ब्राह्मण स्तुति करता हुआ आगे बढ़ा और जिनमन्दिरके पास पहुँचकर उसने वहाँ जिनवरको प्रणाम किया । ( ३६ ) उन्हें वन्दन करके उसने वीतराग जिनके द्वारा उपदिष्ट धर्मके पारे में पूछा । श्रमणने भी अणुत्रतमूलक समग्र धर्मका उपदेश दिया । (४०) उस उत्तम ब्राह्मणने उसे सुनकर गृहस्थोंके द्वारा आचरित धर्म अंगीकार किया। अनन्यदृष्टि और अत्यन्त संतुष्ट वह इस प्रकार विशुद्ध भाववाला हुआ । (४१) हे मुनिवर ! जैसे भूखेको खाना मिले और प्यासेको पानी मिले वैसे ही आपके अनुग्रह से मैंने धर्म प्राप्त किया है । (४२) इस प्रकार कहकर तथा श्रमणको सम्पूर्ण आदर के साथ प्रणाम करके जिसके हृदयमें आनन्द उत्पन्न हुआ है ऐसे उस ब्राह्मणने घरकी ओर प्रस्थान किया । (४३) आनन्द में आया हुआ कपिल कहने लगा कि, हे सुन्दरी ! पहले कभी न देखा हो ऐसा जो मैंने आज देखा है और महान् धर्मका जो सारसर्वश्व मैंने सुना है वह मैं तुझे कहता हूँ । (४४) समिध के लिए जाने पर मैंने अरण्यमें एक नगरी और सुन्दर शरीरवाली एक स्त्री देखी। वह स्त्री अवश्य ही कोई देवी होगी । (४५) पूछने पर उसने मुझे कहा कि, हे विप्र । यह रामपुरी है और इसमें श्रावक लोगोंको राम अनन्त द्रव्य देते हैं । (४६) एक श्रमणके पास धर्म सुनकर मैं श्रावक हो गया हूँ । हे सुन्दरी ! मैं परितुष्ट हूँ, क्योंकि मुश्किलसे प्राप्त होनेवाला धर्म मैंने पालिया है। (४७) उस सुशर्मा ब्राह्मणीने पति से कहा १. सुजामा - प्रत्य० । २. साहू -प्रत्य० । ३. क्षुधितेन । www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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