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________________ २७९ ३५.६३] ३५. कविलोवक्खाणं सा बम्भणी सुसम्मा, भणइ पई जो तुमे मुणिसयासे । गहिओ जिणवरधम्मो, सो हु मए चेव पडिवन्नो ॥ १८ ॥ सबायरेण सुन्दरि !, फासुयदाणं मुणीण दायब । अरहन्तो सयकालं, नमंसियबो पयत्तेणं ॥ ४९ ॥ तो भुञ्जिऊण सोक्खं, उत्तरकुरवाइभोगभूमीसु । लभिहिसि परम्पराए, निवाणमणुत्तरं ठाणं ॥ ५० ॥ सागारधम्मनिरओ, कविलो तं बम्भणी भणइ एवं । पउमं पउमदलच्छी!, गन्तूण पुरं च पेच्छामो ॥ ५१ ॥ दबेण विप्पमुक्क, पुरिसं दारिद्दसागरे पडियं । उत्तारेइ निरुत्तं, रामो अणुकम्पमावन्नो ॥ ५२ ।। तो निग्गओ घराओ, पुरओ काऊण बम्भणी विप्पो । कुसुमकरण्डयहत्थो, उच्चलिओ रामपुरिहुत्तो ॥ ५३ ॥ सो तत्थ वच्चमाणो, पेच्छइ नागे फडाविसालिल्ले । वेयाले य बहुविहे, दाढाविगरालबीहणए ॥ ५४ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, रूवाणि बहुप्पयारघोराणि । कन्ताएँ समं विप्पो, घोसेइ महानमोकार ॥ ५५॥ मोत्तण लोगधम्मं, अहियं जिणसासणुज्जओ अहयं । जाओ नमो जिणाणं, संपइऽतीए भविस्साणं ॥ ५६ ॥ पञ्चसु पञ्चसु पञ्चसु, भरहे एरवएसु य तह विदेहेसु । एएसु य जायाणं, नमो जिणाणं जियभयाणं ॥ ५७ ॥ जिणधम्मनिच्छियमणो, एवं तु बिहीसियाउ वोलेउं । पत्तो रामपुरी सो, कन्तासहिओ मणभिरामं ॥ ५८ ॥ अब्भन्तरं पविट्ठो, दावेन्तो महिलियाएँ भवणवरे । रायङ्गणं च पत्तो, आलोवइ लक्खणं विप्पो ॥ ५९ ॥ पेच्छन्तेण सुमरिओ, एसो सो रूव-कन्तिपडिपुण्णो । जो कडुय-कक्कसेहि, तइया वयणेहि मे सत्तो ॥ ६० ॥ तस्स भएणं तुरिओ, मोत्तणं बंम्भणी पलायन्तो । लच्छीहरेण दिट्ठो, सिग्धं सद्दाविओ विप्पो ॥ ६१ ॥ वाहरिओ य नियत्तो, दट्टणं दो वि ते महापुरिसे । सत्थि करेइ कविलो, मुञ्चइ पुप्फञ्जली पुरओ ॥ ६२ ॥ पउमेण बम्भणो सो. भणिओ कत्तो सि आगओ तहयं । तो भणइ आगओ है, अरुणग्गामाउ तह पासं ॥ ६३ ॥ कि मुनिके पाससे तुमने जो जिनवरका धर्म ग्रहण किया है वह मैं भी अंगीकार करती हूँ । (४८) हे सुन्दरी!सम्पूर्ण आदरके साथ मुनिको प्रासुक दान देना चाहिए और सावधान होकर सर्वदा अरिहन्तको नमस्कार करना चाहिए । (४९) ऐसा करनेसे उत्तरकुरु आदि भोगभूमियोंमें सुखका उपभोग करके क्रमशः उत्तम स्थान मोक्ष तुम प्राप्त कर सकोगी। (५०) गृहस्थ धर्ममें तल्लीन कपिलने उस ब्राह्मणी (अपनी पत्नी) से ऐसा कहा कि, हे कमलाक्षी! उस नगरीमें जाकर हम रामके दर्शन करें। (५१) द्रव्यसे रहित और दारिद्रय-सागरमें पड़े हुए पुरुषको अनुकम्पायुक्त राम अवश्य पार लगाते हैं। (५२) तब ब्राह्मणीको आगे करके ब्राह्मण घरसे निकला और फूलोंकी डलिया हाथमें धारण करके रामपुरीकी ओर चला। (५३) वहाँ जाते हुए उसने विशाल फसवाले नाग और विकराल व भीषण दाँतवाले अनेक प्रकारके भूत-प्रेत देखे । (२४) ये और ऐसे ही दूसरे अनेक प्रकारके घोर रूप देखकर पत्नी के साथ वह ब्राह्मण महानमस्कार मंत्रका उच्चारण करने लगा। (५५) अहितकारी लोकधर्मका त्याग करके मैं जैनशासनमें उद्यमशील हुआ हूँ । वर्तमान, अतीत एवं भविष्यकालीन जिनोंको नमस्कार हो। (५६) पाँच भरतक्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र और पाँच महाविदेहक्षेत्र-इसमें होनेवाले भयविजयी जिनोंको सदा नमस्कार हो। (५७) इस प्रकार भयका निराकरण करके जिनधर्ममें निश्य मनवाला वह पत्नीके साथ मनको आनंद देनेवाली रामपुरीमें पहुँचा। (५८) भीतर प्रवेश करके और अपनी पत्नीको उत्तम भवन दिखलाता हुआ वह ब्राह्मण राजाके प्रांगणमें आ पहुँचा और लक्ष्मणको देखा ! (५९) देखते ही उसे याद हो आया कि रूप एवं कान्तिसे परिपूर्ण यह तो वही है जिसको मैंने उस समय कडुए और कठोर वचनोंसे बुरा भला कहा था । (६०) उसके भयसे ब्राह्मणीको छोड़कर जल्दी-जल्दी भागते हुए उस ब्राह्मणको लक्ष्मणने देखा और शीघ्र ही उसे बुलाया। (६१) बुलानेपर वह लौटा। दोनों महापुरुषोंको देखकर कपिलने आशीर्वाद दिया और उनके सम्मुख पुष्पाञ्जलि अर्पित की । (६२) रामने उस ब्राह्मणसे पूछा कि तुम कहाँ से आये हो ? तब उसने कहा कि अरुणग्रामसे मैं आपके पास आया हूँ। (६३) मेरा नाम कपिल है और यह सुशमा मेरी गृहिणी है। १-२. बंभणि-प्रत्य० । ३. पंचसु भरहेसु सया एरवएसु य तहः विदेहेसु-मु.। ४. रामपुर-प्रत्यः । ५. बंभणि-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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