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३५. कविलोवक्खाणं ताव चिय घणकालो, समागओ गज्जियाइसद्दालो । चञ्चलतडिच्छडालो, धारासंभिन्नपहमग्गो ॥ १८ ॥ अन्धारियं समत्थं, गयणं रविकिरणववगयालोयं । बरिसन्तेण पलोट्टा, नह पुहई भरियकूव-सरा ॥ १९॥ सलिलेण तिम्ममाणा, पत्ता निग्गोहपायवं विउलं । घणवियडपत्तबहलं, नजइ गेहं व अइरम्म ॥ २० ॥ सो तत्थ दुमाहिवई, इभकण्णो नाम सामियं गन्तुं । भणइ करेहि परित्तं, गिहाउ उबासिओ अयं ॥ २१ ॥ अवहिविसएण नाउं, हलहर-नारायणा तुरियवेगा । तत्थेव आगओ सो, विणायगो पूयणो नाम ॥ २२ ॥ ताण पभावेण लहु, वच्छल्लेण य विसालपायारा । जण-धण-रयणसमिद्धा. तेण तहिं निम्मिया नयरी ॥ २३ ॥ तत्थेव सुहपसुत्ता, पाहाउयगीय-मङ्गलरवेणं । पेच्छन्ति नवविउद्धा, भवणं तूलीनिसण्णङ्गा ॥ २४ ॥ पासाय-तुङ्गतोरण-य-गय-सामन्त-परियणाइण्णा । देहुवगरणसमिद्धा, धणयपुरी चेव पच्चक्खा ॥ २५॥ जक्खाहिवेण सहसा, रामस्स विणिम्मिया पुरी जेणं । तेणं सा रामपुरी, जाया पुहईऍ विक्खाया ॥ २६ ॥ तो भणइ गणाहिवई, सेणिय ! निसुणेहि तत्थ सो विप्पो । सूरुग्गमे पयट्टो, दब्भयहत्थो अरण्णम्मि ॥ २७ ॥ तेण भमन्तेण तहिं. दिशा नयरी घरा-ऽऽवणसमिद्धा । उववण-तलाय-जण-धण-समाउला तुङ्गपायारा ॥ २८ चिन्तेइ बम्भणो सो, किं सुरलोगाउ आगया एसा । नयरी मणाभिरामा, कस्स वि पुण्णाणुभावेणं ? ॥ २९ ॥ किं होज मए सुमिणो ?, दिट्ठो माया व केणइ पउत्ता ? । पित्ताहियं व चक्, होज्ज व मरणं समासन्नं १ ॥ ३० ॥ एयाणि य अन्नाणि य, परिचिन्तन्तेण महिलिया दिट्टा । भणिया य कस्स भद्दे !, एस पुरी देवनयरि छ ? ॥ ३१ ॥ सा भणइ किं न याणसि!, एस पुरो भद्द ! पउमनाहस्स । सीया जस्स महिलिया, हवइ य लच्छीहरोभाया ॥ ३२ ॥
इसी समय बादलोंकी गर्जनासे अत्यन्त शब्दायमान, चंचल बिजलीकी छटासे युक्त तथा मुसलधार वर्षासे जिसने रास्ता तोडफोड़ दिया है ऐसा वर्षाकाल आ गया। (१८) उस समय सारा आकाश अन्धेरेसे व्याप्त हो गया, सूर्यकी किरणों का प्रकाश अदृश्य हो गया और पृथ्वी बारिशके पानीसे ऐसी तो छा गई कि कृएँ और सरोवर भर गये। (१९) पानीसे भीगे हुए वे सघन, बड़े और पत्तोंसे छाये हुए ऐसे एक विशाल बरगदके पेड़के पास आ पहुँचे। वह अत्यन्त रमणीय घरकी भाँति प्रतीत होता था। (२०) इभकर्ण नामका उस वृक्षका अधिपति देव अपने स्वामीके पास जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो। मैं घरमेंसे निकाल दिया गया हूँ। (२१) अवधिज्ञानसे जानकर कि वे तो हलधर और नारायण हैं, वह पूर्पण नामका देवांका स्वामी वहाँ शीघ्रगतिसे आया। (२२) उनके प्रभावसे तथा उनके प्रति प्रेमभाव होनसे उसने वहाँ विशाल किलेसे युक्त तथा जन, धन एवं रत्नोंसे समृद्ध एक नगरी बसाई । (२३) उसी नगरीमें सुखपूर्वक सोये हुए वे जब तरोताजा होकर प्रातर्गीतकी मंगलध्वनिसे जगे तब उन्होंने एक भवन देखा और अपने शरीरको रूईके गहोंपर आराम करते पाया। (२४) महल, ऊँचे तोरण, हाथी, घोड़े, सामन्त और परिजनोंसे भरीपूरी तथा शरीरके लिए आवश्यक उपकरणोंसे समृद्ध वह नगरी साक्षात् कुबेरकी नगरी जैसी मालूम होती थी। (२५) चूँकि रामके लिए यक्षाधिपने वह नगरी सहसा निर्मित की थी, इसलिए वह रामपुरीके नामसे पृथ्वीमें विख्यात हुई । (२६)
इसके पश्चात् गणाधिपति श्री गौतमस्वामीने कहा कि हे श्रेणिक ! तुम सुनो। वहाँ जो ब्राह्मण (कपिल) था वह सूर्योदय होने पर हाथमें दर्भ लेकर जंगलमें गया । (२७) घूमते हुए उसने वहाँ घर एवं बाजारोंसे समृद्ध, उपवन, सरोवर, जन एवं धनसे व्याप्त तथा ऊँचे किलेसे युक्त नगरी देखी । (२८) उसे देखकर वह ब्राह्मण सोचने लगा कि किसीके पुण्यके फलस्वरूप क्या यह मनोरम नगरी स्वर्गलोकमेंसे नीचे उतर आई है ? अथवा क्या मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा ? अथवा किसीने इन्द्रजाल तो नहीं फैलाया ? अथवा मेरी आँखमें पीलिया तो नहीं हो गया ? अथवा मरण तो पासमें नहीं आया ? (२९-३०) जब वह ऐसे तथा इनके सदृश दूसरे विचार कर रहा था तब उसने एक स्त्रीको देखा। उससे पूछा कि भद्रे ! देवनगरी जैसी यह किसकी नगरी है ? (३१) उसने कहा कि क्या तुम नहीं जानते कि सीता जिनकी पत्नी है और लक्ष्मण जिनका भाई है ऐसे रामचन्द्रजीकी यह नगरी है। (३२) हे विप्र! दूसरी बात भी तुम सुनो। राम
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