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________________ २७६ पउमचरियं [३५. ३. भणइ पउमं वि सीया, सूसइ कण्ठो महं अइतिसाए । परिसमजणियं च तणू, तम्हा उदयं समाणेह ॥ ३ ॥ हत्थावलम्बियकरा, भणिया रामेण पेच्छ आसन्ने । गामं तुङ्गवरघरं, एत्थ तुमं पाणियं पियसु ।। ४ ।। एव भणिऊण सणियं, सणिय संपत्थियाऽरुणग्गामे । गेहम्मि य उवविट्ठा, कविलस्स उ आहियग्गिस्स ॥ ५॥ तं बम्भणीऍ दिन्नं, पीय सीयाएँ सीयलं सलिलं । ताव च्चिय रण्णाओ, संपत्तो तक्खणं कविलो ॥ ६ ॥ तरुफल-समिहकन्तो, कमण्डलुग्गहियउंछचित्तीओ। अइकोणो विसीलो, उलुयमुहो ककडच्छीओ ॥ ७ ॥ ते तत्थ सन्निविट्ठा, दट्टणं बम्भणी भणइ रुट्टो । एयाण घरपवेसो, किं ते दिनो महापावे ? ॥८॥ पहरेणुमइलचलणा, मा मे उवहणह अग्गिहोत्तघरं । तुब्भे निप्फिडह लहूं, कि अच्छह एत्थ निल्लज्जा ? ॥९॥ तो भणइ जणयधूया, इमेण दुबयणअम्गिनिवहेणं । दडूं सरीरयं मे, रणं व जहा वणदवेणं ॥ १० ॥ अडकीसु वरं वासो, समयं हरिणेसु जत्थ सच्छन्दो । न य एरिसाणि सामिय!, सुवन्ति जहिं दुवयणाई ॥ ११ ॥ लोएण तत्थ बडुओ, वारिजन्तो वि गामवासीणं । न पसज्जइ दुट्टप्पा, भणइ य गेहाओ निप्फिडह ॥ १२ ॥ आरुट्टो सोमित्ती, गाढं दुबयणफरुसघाएहिं । चलणेसु गेण्हिऊणं, अहोमुहं भामई विप्पं ॥ १३ ॥ भणिओ य राघवेणं, लक्खण ! न य एरिसं हवइ जुत्तं । मेल्लेहि इमं विप्पं, पावं अयसस्स आमूलं ॥ १४ ॥ समणा य बम्भणा विय, गो पसु इत्थी य बालया वुड्डा । जइ वि हु कुणन्ति दोसं, तह वि य एए न हन्तबा ॥ १५॥ मोत्तूण बम्भणं तं, सोमित्ती राघवो सह पियाए । अह निग्गओ घराओ, पुणरवि य पहेण वचन्ति ॥ १६ ॥ कूलेसु गिरिनईणं, निवसामि वरं अरण्णवासम्मि । न य खलयणस्स गेहं, पविसामि पुणो भणइ रामो ॥ १७ ॥ सीताने रामसे कहा कि जोरकी प्याससे मेरा गला सूख रहा है और शरीर भी थक गया है, अतः पानी लावें । (३) हाथसे जिसके हाथको सहारा दिया गया है ऐसी उस सीताको रामने कहा कि देखो, यहाँ समीपमें ही ऊँचे और उत्तम घरोंसे युक्त ग्राम है। वहाँ तुम पानी पीना । (४) इस प्रकार कहकर उन्होंने अरुणग्रामकी ओर शनैः शनैः प्रयाण किया और आहिताग्नि (पवित्र अग्नियोंको घरमें स्थापित करनेवाले) कपिलके घरमें जाकर बैठे । (५) ब्राह्मणीने ठंडा पानी दिया और सीताने पीया। उस समय कपिल भी अरण्यमेंसे वहाँ आ पहुँचा । (६) वह वृक्षोंके फल तथा समिध (यज्ञकी लकड़ियाँ) उठाए हुए था और एक कमण्डल लिए हुए था। उञ्छवृत्तिवाला वह बहुत क्रोधी, खराब स्वभावका, अशिष्ट तथा उल्लू जैसे मुँहवाला और कैंकड़ेके जैसी आँखोंवाला था । (७) उन्हें वहाँ बैठे देख गुस्से में आया हुआ वह बोलने लगा कि, हे महापापिणी! तूने इन्हें घरमें प्रवेश क्यों दिया है। (८) रास्तेको धूलसे मैले पैरोंवाले तुम मेरे अग्निहोत्रसे युक्त घरको अपवित्र मत बनाओ। तुम जल्दी ही चले जाओ। निर्लज तुम यहाँ क्यों बैठे हो ? (९) तब सीताने कहा कि दावानलसे जैसे जंगल जलता है वैसे ही इस दुर्वचनरूपी अग्निसे मेरा शरीर जल रहा है । (१०) हे स्वामी! जंगलों में हिरनोंके साथ रहना अच्छा है, जहाँ स्वाधीनता होती है और जहाँ ऐसे दुर्वचन नहीं सुनने पड़ते । (११) गाँवमें रहनेवाले लोगों द्वारा बहुत रोके जानेपर भी वह दुष्टात्मा पसीजा नहीं। वह कहता ही रहा कि घरमेंसे बाहर निकलो । (१२) दुर्वचनरूपी कठोर प्रहारोंसे गुस्से में आये हुए लक्ष्मणने उस ब्राह्मणके पैरोंको पकड़कर और सिर नीचे लटकाकर घुमाया। (१३) इसपर रामने कहा कि, हे लक्ष्मग! ऐसा करना ठीक नहीं है। पापी और अयशके मूलरूप इस ब्राह्मणको छोड़ दो । (१४) यदि श्रमण, ब्राह्मण, गाय, पशु, खी, बालक एवं बूढ़े लोग दोषाचरण करें तो भी उन्हें नहीं मारना चाहिए । (१५) इसके बाद सीताके साथ राम और लक्ष्मणने उस ब्राह्मणको छोड़कर तथा घरसे निकलकर पुनः मागंपर प्रयाण शुरू किया । (१६) रामने कहा कि पहाड़ों की घाटियोंमें, नदियोंके किनारोंपर अथवा जंगलोंमें रहूँ यह अच्छा है, पर अब पुनः दुष्ट लोगोंके घरमें प्रवेश नहीं करूँगा। (१७) १. उल्लुण्ठमुद्दो-मु.। २. बंभणि-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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