________________
३५.२]
३५. कविलोवक्खाणं पउमेण तओ भणिओ. किवालुणा जइ करेह मह वयणं । मोएहि बन्धणाओ, नराहिवं वालिखिल्लं तं ॥ ५० ॥ जं आणवेसि सामिय!, एवं भणिऊण वालिखिल्लं सो । मोएइ बन्धणाओ, सम्माणं से परं कुणइ ॥ ५१ ॥ नीओ पउमसयासं, पणमइ य पुणो पुणो पसंसन्तो। जं बन्धणाउ मुक्को, अहयं तुम्हें पसाएणं ॥ ५२ ।। भणिओ य राघवेणं, इट्ठजणसमागमं लहसु सिग्छ । जाणिहिसि सबमेयं, निययपुरि पत्थिओ सन्तो ॥ ५३ ।। चलिओ य वालिखिल्लो, पणई काऊण रुद्दभूई य । परमो मेच्छाहिबई, ठविय बसे बच्चइ पहेणं ॥ ५४॥ राया वि बालिखिल्लो, संपत्तो रुद्दभूइणा समयं । पविसरइ कूववई, बन्दिजणुग्घुटनयसद्दो ॥ ५५ ॥ चिरविप्पओगदहिया. पणमइ कल्लाणमालिणी पियरं । तेण वि य उत्तमङ्गे, धूया परिचुम्बिया तयणु ॥ ५६ ॥ पुहवी वि महादेवी, परितुट्टा पुलइएसु अङ्गेसु । संभासिया सणेहं, भिच्चा य सनायरा सवे ।। ५७ ।। ण्हाओ महारहसुओ, समयं चिय रुद्दभूइणा एत्तो । आहरण-रयण-कणयाइएसु पूएइ मेच्छवई ॥ ५८ ॥ संपूइओ पयट्टो, आउच्छेऊण मेच्छसामन्तो । संपत्तो निययपुरं, रमइ सुहं वालिखिल्लो वि ॥ ५९॥ सोऊण धीरस्स विचेट्टियं ते, सीहोदराई बहवे नरिन्दा। पसंसमाणा विमलं जसोह, नाया ससङ्का पउमस्स निच्चं ॥६०॥
।। इय पउमचरिए वालिखिल्लउवक्खाणं नाम चउतीसइमो उद्देसओ समत्तो ।।
३५. कविलोवक्खाणं अह ते कमेण विझं, अइकमेऊण पाविया विसयं । मज्झेण वहइ तावी, जस्स नई निम्मलजलोहा ॥१॥ वचन्ताणुदेसो, जाओ जलवजिओ अरण्णमि । ताव चिय अइगाद, सीया तण्हं समुबहइ ॥ २॥
बन्धनसे मुक्त करो। (५०) 'हे स्वामी! आपकी जो आज्ञा'-ऐसा कहकर उसने बालिखिल्यको बन्धनसे मुक्त किया
और खूब आदरसत्कार किया। (५१) रामके पाससे जानेपर उसने (वालिखिल्यने) प्रणाम किया और बार-बार प्रशंसा करता हुआ कहने लगा कि आपके अनुग्रहसे मैं क़दमेंसे मुक्त किया गया हूँ। (५२) रामने भी कहा कि तुम इष्ट-जनका समागम जल्दी ही प्राप्त करो। अपनी नगरीकी ओर प्रस्थान करनेपर तुम जान पाओगे कि यह सत्य है । (५३) प्रणाम करके वालिखिल्य चला गया और म्लेच्छाधिपति रुद्रभूतिको अपने वशमें करके राम भी रास्ते पर आगे बढ़े । (५४)
वालिखिल्य राजा रुद्रभूतिके साथ आ पहुँचा और चारणों द्वारा जिसके लिए 'जय जय' शब्दकी उद्घोषणा की जा रही है ऐसे उसने कूपपद्र नगरीमें प्रवेश किया। (५५) चिरकालीन वियोगसे दुःखित कल्याणमालिनीने पिताको प्रणाम किया और तब उसने भी अपनी पुत्रीके मस्तक पर चुम्बन किया। (५६) पटरानी पृथ्वी भी अत्यन्त आनन्दित हुई। उसके शरीर पर हर्षवश रोमांच खड़े हो गये। नागरिकोंके साथ सब नौकर-चाकर स्नेहपूर्वक बुलाये गये । (५७) इसके पश्चात् रुद्रभूतिके साथ महारथके पुत्रने भी स्नान किया। वालिखिल्यने आभूषण, रत्न एवं सुवर्णसे म्लेच्छपति रुद्रभूतिका सम्मान किया । (५६) सम्मानित म्लेच्छराजा अनुमति लेकर वापस लौटा और अपने नगरमें आ पहुँचा। वालिखिल्य भी सुखपूर्वक समय बिताने लगा । (५९) धीर रामके साहसपूर्ण कार्यों के बारेमें सुनकर सिंहोदर आदि बहुतसे राजा उनके विमल यशके प्रवाहकी प्रशंसा करते हुए सदैव उनसे साशंक रहने लगे । (६०)
। पद्मचरितमें वालिखिल्य-उपाख्यान नामका चौंतीसवाँ उद्देश सम न हुआ।
३५. कपिल उपाख्यान इसके पश्चात् क्रमशः विन्ध्यको पार करके वे उस प्रदेशमें पहुंचे जिसके बीचमेंसे होकरके निर्मल पानीके प्रवाहवाली ताप्ती नदी बहती थी। (१) आगे जानेपर एक अरण्यमें जलशून्य प्रदेश आया । उस समय सीताको जोरोंकी प्यास लगी। (२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org