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________________ २६६ ३३. १२४ ] ३३. वज्जयण्णउवक्खाणं जोहेण हणइ जोह, पण्हिपहारेण कुणइ निज्जीवं । अन्नं विदिनपट्टि, वज्जइ य अहोमुहं पडियं ॥ ११० ॥ एवं सा भडपरिसा, भम्गा दट्टण उढिओ राया। सीहोयरो तुरन्तो, मत्तमहागयवरारूढो ॥ १११ ॥ तुरय-रह-कुञ्जरेसु य, अन्नेसु भडेसु बद्धकवएसु । वेढेइ लक्खणं सो, मेहो व रविं जलयकाले ॥ ११२ ॥ दट्टण आवयन्तं, रिउसेन्नं सबओ समन्तेणं । सोमित्ती गयखम्भ, उम्मूलेऊण अभिट्टो ॥ ११३ ॥ गय-तुरय-दप्पियभडे, पहणइ परिहत्थदच्छउच्छाहो । चकं व समाइद्धं, तं रिउसेन्नं भमाडेइ ।। ११४ ॥ यमाणवयनोहं, भग्गं तं रिउबलं पलोएइ । दसउरनयराहिवई, जणसहिओ गोउरनिविट्ठो ॥ ११५ ॥ साहु ति साहु लोगो, जंपइ एकणिमेण वीरेणं । भग्गं सुहडाणीय, सीहेण व मयकुलं सयलं ।। ११६ ॥ भग्गा भणन्ति सुहडा, किं एसो दाणवो सुरो कालो? । एक्को जोहेइ बलं, समरसमत्थो महापुरिसो ॥ ११७ ॥ भयविहलवेवियङ्ग, गन्तुं सीहोयरं रहारूढं । उप्पइऊणाऽऽयड्डइ, धरणियलत्थं कुणइ वीरो ॥ ११८ ॥ निययंसुयगलगहियं, पुरओ काऊण जह य बलिवदं । पउमस्स सन्नियासं, सोमित्ती नेइ तुरन्तो ॥ ११९ ॥ सीहोयरमहिलाओ, जंपन्ति विमुक्कनयणसलिलाओ । पइभिक्खं देहि पहू! अम्हं सरणं असरणाणं ॥ १२० ॥ सो भणइ रुक्खसण्डं, जं पेच्छह अम्ह सुविउलं पुरओ। उल्लम्बेमि हणेऊ, एयं सीहोयरं सिग्धं ॥ १२१ ॥ सो ताण रुयन्तीणं, नोओ सीहोयरो गुरुसमीवं । कहिओ य लक्खणेणं, एस पूह ! वज्जयण्णरिऊ ॥ १२२ ।। सीहोयरो पणाम, काऊणं भणइ पउमणाहं सो। न यहं जाणामि फुडं, को सि तुम देव । एत्थाऽऽओ? ॥ १२३ ॥ जं आणवेसि सामिय! सब पि करेमि तुज्झभिच्चोहं । भणिओ य कुणसु-संधि, समयं चिय वज्जयण्णेणं ॥ १२४ ॥ उस लक्ष्मणने एक योद्धाको युद्ध करके मारा और उसे लतिया करके निर्जीव किया। जिसकी पीठ फट गई है और इसीलिए जो औंधे मुँह पड़ा है ऐसे दूसरे किसोको उसने बाँध लिया। (११०) इस प्रकार सुभटोंकी उस परिषद् को भग्न होते देख राजा सिंहोदर उठ खड़ा हुआ और तुरन्त ही मदोन्मत्त बड़े भारी हाथी पर सवार हुआ। (१११) घोड़े, रथ और हाथी तथा कवच बाँधे हुए दूसरे सुभटोंके साथ उसने लक्ष्मणको वर्षाकालमें बादल सूर्यको जिस प्रकार घेर लेते हैं, उस प्रकार घेर लिया। (११२) यह देखकर कि शत्रु-सैन्य चारों ओरसे आक्रमण कर रहा है, लक्ष्मण हाथी बाँधनेके खम्भेको उखाड़कर सामने खड़ा रहा । (११३) चतुर, दक्ष एवं उत्साही लक्ष्मण हाथी, घोड़े तथा घमण्डी सुभटोंको मारने लगा और तेजीसे घूमते हुए चक्रकी भाँति शत्रुकी सेनाको घुमाने लगा। (११४) लोगोंके साथ नगरके द्वारमें खड़े हुए दशपुर नगरके अधिपति वनकर्णने पीटे और मारे जाते योद्धाओंके कारण भग्न उस शत्रुसैन्यको देखा । (११५) लोग चिल्लाते थे कि अच्छा किया, अच्छा किया। जैसे हरिणोंके समूहको अकेला सिंह नष्ट करता है वैसे ही इस अकेले वीरने सुभटोंकी सेनाको नष्ट कर दिया है (११६) हारे हुए सुभट कहते थे कि क्या यह कोई राक्षस, देव या यम है? युद्ध में कुशल यह महापुरुष अकेला सैन्यके साथ लड़ता है। (११७) भयसे विह्वल होनेके कारण जिसका शरीर कॉप रहा है ऐसे रथ पर आरूढ़ सिंहोदरके पास जाकर उस वीरने कूदकर उसे खींचा और जमीन पर ला पटका । (११८) उसके अपने ही वनसे बैलकी तरह गला पकड़कर और आगे करके लक्ष्मण उसे तत्काल रामके समक्ष ले गया। (११९) जिनकी आँखोंमेंसे आँसू गिर रहे हैं ऐसी सिंहोदरकी खियाँ कहने लगी कि, हे प्रभो! अशरणोंकी शरण! हमें आप पतिभिक्षा दें। (१२०) उस लक्ष्मणने कहा कि हमारे सामने जो वह बड़ा भारी पेड़ तुम देख रही हों उस पर इस सिंहोदरको मारनेके लिए शीघ्र ही लटका दूँगा। (१२१) उन रोती हुई स्त्रियोंका पति सिंहोदर बड़े भाईके पास लाया गया। लक्ष्मणने कहा कि, हे प्रभो! वाकर्णका शत्रु यह रहा । (१२२) प्रणाम करके सिंहोदरने रामसे कहा कि, हे देव ! यहाँ पर आये हुए आप कौन हैं यह मैं बिलकुल नहीं जानता हूँ। (१२३) हे स्वामी! मैं आपका भृत्य हूँ। आप जो आज्ञा देंगे वह सब मैं करूँगा। इस पर रामने कहा कि वनकर्णके साथ तुम सन्धि कर लो। (१२४) इस बीच भेजे हुए मनुष्य द्वारा दशपुरका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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