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________________ २६८ पउमचरियं [३३. ९४तं लक्खणेण नीयं, भुत्तं चिय भोयणं नहिच्छाए । सवगुणेहि वि पुण्णं, अमयं व तणू सुहावेइ ॥ ९४ ॥ तो भणइ पउमणाहो, पेच्छसु सोमित्ति ! बज्जयण्णेणं । अमुणियगुणेण अम्हं, ववहरियं एरिसं कजं ॥ ९५ ॥ जिणसासणाणुरत्तो, अणन्नदिट्ठी दसङ्गनयरवई । जइ पविही विणासं, धिरत्थु तो अम्ह जीएणं ॥ ९६ ॥ गन्तूण लक्खण! तुम, सीहोयरपत्थिवं भणसु एवं । पीई करेहि सिग्धं, समयं चिय वजयण्णेणं ।। ९७ ॥ नं आणवेसि भणिऊण लक्खणो अइगओ पवणवेगो । सिबिरं चिय संपत्तो, कमेण पविसरइ रायहरं ॥ ९८ ॥ अत्थाणिमण्डवत्थं, जंपइ सीहोयरं मइपगब्भो । भरहेण अहं दूओ, विसजिओ तुज्झ पासम्मि ॥ ९९ ॥ आणवइ तुमं भरहो, समुद्दपेरन्तवसुमईनाहो । जह मा कुणसु विरोह, समय चिय वज्जयण्णेणं ॥ १० ॥ सीहोयरो पत्तो, किं गुणदोसे न याणई भरहो। जइ विणयमइगयाणं भिचाण पह पसज्जन्ति ॥ १०॥ मह एस वजयण्णो, विणयपराहुत्तमाणिओ मुइओ । एयस्स परमुवाय, करेमि किं तुज्झ तत्तीए? ॥ १०२ ॥ भणइ तओ सोमित्ती, किं ते बहुएहि नंपियवेहिं ! । एयस्स खमसु सबं, सीहोयर ! मज्झ वयणेणं ॥ १०३ ॥ सोऊण वयणमेयं, भणइ य सीहोयरो परमरुट्ठो । जो तस्स बहइ पक्खं, सो विमए चेव हन्तबो ॥ १०४ ॥ पुणरवि भणइ कुमारो, मह वयणं सुणसु सबसंखेवं । संधिं व कुणसु अजं, मरणं व लहुं पडिच्छाहि ॥ १०५ ॥ एवं च भणियमैत्ते, संखुहिया सयलपस्थिवत्थाणी। नाणाचेट्टाउलिया, नाणादुबयणकल्लोला ॥ १०६ ॥ केइ भडा सहस त्ति य, उक्कड्ढेऊण तत्थ छुरियाओ। सिग्छ चिय संपत्ता, तस्स वहत्थुज्जयमईया ॥ १०७ ।। संवेढिउं पवत्ता, मसगा इव पवयं समन्तेणं । अह सो भउज्झियमणो, जुज्झेइ समं रिउभडेहिं ॥ १०८ ॥ करयलघायाहि भडा, केएत्थाऽऽहणइ चलणपहरेहिं । जवाबलेण केई, केई पाडइ भुयबलेणं ॥ १०९ ॥ हुआ। वह सब गुणोंसे पूर्ण तथा अमृतकी भाँति शरीरको सुखदायी था। (९४) तब पद्मनाभ (राम) ने कहा कि, हे लक्ष्मण ! देखो। हमारे गुणोंको न जानने पर भी वनकर्णने ऐसा व्यवहार किया है । (९५) जिनशासनमें अनुरक्त तथा किसी दूसरे धर्मकी ओर दृष्टि न डालनेवाला दशपुरका राजा यदि विनाशको प्राप्त होगा तो हमारे जीवनको धिकार है। (९६) हे लक्ष्मण! तुम सिंहोदर राजाके पास जल्दी जाकर ऐसा कहो कि वनकर्ण राजाके साथ तुम शीघ्र ही प्रीति करो। (९७) 'आप जो आज्ञा देते हैं। ऐसा कहकर पवनकी भाँति वेगवाला लक्ष्मण गया और शिविरके पास पहुँचकर क्रमशः राजमहलमें प्रवेश किया। (९८) राजसभामें बैठे हुए उस सिंहोदरके पास जाकर उसने कहा कि, हे बुद्धिशाली सिंहोदर ! भरतने मुझ दूतको तुम्हारे पास भेजा है। (९९) समुद्रपर्यन्त पृथ्वीके स्वामी भरत तुम्हें आज्ञा देते हैं कि वनकर्णके साथ विरोध मत करो। (१००) सिंहोदरने जवाबमें कहा कि भरत क्या गुण-दोष नहीं जानते कि विनयका अतिक्रम करनेवाले भृत्योंके कारण मालिकको तकलोफ उठानी पड़ती है ? (१०१) मेरे प्रति विनयसे परांमुख यह वनकर्ण अभिमानी हो गया है और फूला नहीं समाता। मैं इसका योग्य उपाय करता हूँ। तुम्हारे सन्तोषसे मुझे क्या प्रयोजन है । (१०२) इस पर लक्ष्मणने कहा कि तो तुम्हारे बहुत बोलनेसे भी मुझे क्या प्रयोजन है? हे सिंहोदर! मेरे कहनेसे तुम इसका सब कुछ क्षमा कर दो। (१०३) यह कथन सुनकर अत्यन्त रुष्ट सिंहोदर कहने लगा कि जो उसका पक्ष लेता है वह भी मेरे द्वारा मारे जाने योग्य है। (१०४) कुमार लक्ष्मणने पुनःकहा कि अत्यन्त संक्षेपमें मेरा कथन तुम सुन लो-आज ही सन्धि कर लो, अन्यथा मृत्युको शीघतासे प्रतीक्षा करो। (१०५) ऐसा कहते ही राजाकी समग्र सभा संक्षुब्ध हो उठी। वह अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करने लगी तथा अनेक प्रकारके दुर्वचनरूपी तरंगोंसे व्याप्त हो गई। (१०६) वहाँ वध करनेके लिए उत्सुक बुद्धिशाली कई भट एकदम तलवार खींचकर उसके पास शीघ्र ही पहुँच गये। (१०७) पर्वतको घेरनेवाले मच्छरोंकी भौति उन्होंने उसे घेरनेका प्रयत्न किया, परन्तु भयरहित मनवाला वह लक्ष्मण शत्रुके सुभटोंके साथ लड़ने लगा। (१०८) उसने कई सुभटोंको मुट्ठीके प्रहारसे, कइओंको पैरोंके प्रहारसे, कइयोंको जाँधके बलसे और कइयोंको भुजाओंकी सामय॑से पीटा । (१०९) १. पीई-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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