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पउमचरियं
[३३. १२५
ताव च्चिय आहूओ, हिएण पुरिसेण दसउराहिवई । सिग्धं च समणुपत्तो, पयाहिणं कुणइ जिणभवणे ॥ १२५ ॥ चन्दप्पहस्स पडिमं, थोऊणं राघवं सुहासीणं । संभासेइ पट्टो, सीयं च ससंभमसिणेहं ॥ १२६ ॥ देहाइकुसलपुवं, परिपुच्छेऊण तत्थ उवविट्ठो । कुसलेण भद्द ! तुझं, अम्ह वि कुसलं भणइ रामो ॥ १२७ ॥ वट्टइ नावुल्लावो, समागओ ताव विजयङ्गो वि । पउमं सीयाएँ समं, पणमिय तत्थेव उवविठ्ठो ।। १२८ ॥ रामेण वजयण्णो, भणिओ साहु त्ति निणमए दिट्ठी । गिरिरायचूलिया इव, न कम्पिया कुसुइवाएणं ॥ १२९ ॥ नमिऊण निणवरिन्दं, भवोहमहणं तिलोयपरिमहियं । कह अन्नो पणमिज्जइ, इमेण वरउत्तिमङ्गेणं? ॥ १३० ॥ तो भणइ वज्जयण्णो, अवसीयन्तस्स वसणपडियस्स । पुण्णेहि मज्झ सुपुरिस ! जाओ च्चिय बन्धवो तुहयं ॥ १३१ ॥ भणिओ य वजयण्णो, रामकणिद्वेण जं तुमे इ8 । तं अज भणसु सिग्धं, सर्व संपायइस्सामि ॥ १३२ ॥ तो भणइ तणाईण वि, पीडं नेच्छामि सबजीवाणं । मह वयणेण महाजस! मुञ्चसु सीहोयरं एयं ॥ १३३ ॥ एवं भणिए नणेणं, उग्घुटुं साहु साहु साहु त्ति । सीहोयरो य मुक्को, वयणेणं वज्जयण्णस्स ॥ १३४ ॥ पीई कया य दोण्ह वि, समयसमावन्नपणयपमुहाणं । निययनयरी' अद्धं, तस्स य सीहोयरो देइ ॥ १३५ ॥ आसाण गयवराणं, कुणइ हिरण्णस्स समविभागणं । सीहोयरो य तुट्ठो, देइ चिय वजयण्णस्स ॥ १३६ ॥ जिणधम्मपभावेणं, तत्थ गयाणं च कुण्डलं दिवं । सीहोयरेण दिन्नं, तुट्टेणं विजयङ्गस्स ॥ १३७ ॥ तो दसउराहिवेणं, दुहियाओ ताण अट्ट दिन्नाओ । आभरणभूसियाओ, सिग्धं पुरओ य ठवियाओ ॥ १३८ ॥ सीहोयरमाईहिं, अन्नेहि वि पत्थिवेहि कन्नाणं । थणजहणसालिणीणं, सयाणि तिण्णेव दिन्नाइं ॥ १३९ ॥ तो लक्खणो पवुत्तो, न य महिलासंगहेण मे कजं । जाव य न भुयबलेणं, समज्जियं अत्तणो रजं ॥ १४० ॥
राजा वनकर्ण भी बुलाया गया। वह शीघ्र ही आया और जिनमन्दिरमें दर्शनार्थ प्रदक्षिणा दी । (१२५) चन्द्रप्रभस्वामीकी प्रतिमाकी स्तुति करके अत्यन्त आनन्दित उसने आरामसे बैठे हुए रामचन्द्रजी तथा उत्कण्ठा एवं स्नेहसे युक्त सीतासे बात की। (१२६) प्रथम शरीर आदिकी कुशल पूछकर वह वहाँ बैठा। रामने कहा कि, भद्र! जब तुम कुशल हो तो हम भी कुशल हैं। (१२७)
इस प्रकार जव वार्तालाप हो रहा था तब विद्युदंग भी आ पहुँचा और सीताके साथ रामको प्रणाम करके वहीं बैठा । (१२८) रामने वनकर्णसे कहा कि कुशास्त्ररूपी वायुसे गिरिराज शिखरकी भाँति अकम्पित तुम्हारी जैनमतमें दृष्टि श्लाघनीय है । (१२९) संसारके प्रवाहको नाश करनेवाले और तीनों लोकोंमें पूजित जिनवरेन्द्रको एक बार नमस्कार करके दूसरा कौन है जिसे इस उत्तम अंग मस्तकसे नमस्कार किया जाय ? (१३०) तब वञकर्णने कहा कि, हे सुपुरुष! विनष्ट
और दुःखमें पड़े हुए मेरे पुण्योंके कारण ही तुम मेरे भाई हुए हो। (१३१) इसपर रामके छोटे भाई लक्ष्म गने वनकर्णसे कहा कि आज तुम्हें जो अभीष्ट हो वह कहो। मैं वह सब जल्दी ही पूरा करूँगा । (१३२) इसपर उसने कहा कि मैं तिनके से लेकर किसी भी जीवको पीड़ा हो ऐसा नहीं चाहता। इसलिए, हे महायश ! इस सिंहोदरको तुम छोड़ दो। (१३३) इस प्रकार कहनेपर लोगोंने 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा' ऐसा उद्घोष किया। वनकर्णके कहनेसे सिंहोदरको मुक्त किया गया। (१३४) सन्धि हो जानेके कारण जिन्होंने पूर्ण प्रेम प्राप्त किया है ऐसे उन दोनोंमें मैत्री हो गई। सिंहोदरने उसे अपनी नगरीका आधा हिस्सा दिया। (१३५) तुष्ट सिंहोदरने घोड़े, हाथी एवं सोने का बराबर हिस्सा किया और वह वनकणको दिया। (१३६) जैनधर्म तथा वहाँ आये हए राम-लक्ष्मणके प्रभावसे संतुष्ट होकर सिंहोदरने विवादंगको दिव्य कुण्डल दिये। (१३७) तब दशपुरके राजाने उसे (लक्ष्मणको) आठ कन्याएँ दीं। आभूषणोंसे भूषित वे शीघ्र ही उसके सम्मुख लाई गई। (१३८) सिंहोदर आदि दूसरे राजाओंने भी स्तन एवं जघनसे सुन्दर दिखाई देनेवाली तीन सौ कन्याएँ दी। (१३९) इसपर लक्ष्मणने कहा कि जबतक भुजाओंके बलसे मैं अपना राज्य प्राप्त नहीं करूँगा तबतक मुझे इन महिलाओंके परिग्रहसे प्रयोजन नहीं है। (१४०) भरतके सम्पूर्ण राज्यका त्याग करके और मलयपर्वत पर निवास करके जब हम
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