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________________ २६४ पउमचरियं [३३.३३. तो भणह समणसीहो. एत्थ हियं अत्तणो विचिन्तेन्तो। अच्छामि रण्णमज्झे, दुक्खविमोक्खं च कुणमाणो ॥ ३३॥ पुणरवि भणइ नरिन्दो, एयावत्थस्स भोगरहियस्स । थोवं पि नत्थि सोक्खं, किं अप्पहियं तुम साहू !! ॥ ३४ ॥ विसयपसकाभिमुह, नाऊण सुभासियं भणइ साहू । जं पुच्छसि अप्पहिय, तं ते सर्व निवेएमि ॥ ३५॥ . जे विसएसु पसत्ता, ते अप्पसुहेण वश्चिया मूढा । भमिहिन्ति भवसमुद्दे, दुक्खसहस्साई पावन्ता ॥ ३६॥ हन्तुण विविहसत्ते, इमस्स देहस्स पोसणट्टाए । आयसपिण्डो व जले, जाहिसि नरए निरभिरामे ॥ ३७॥ नूणं तुमे नराहिव! न य विन्नायाओ सत्त पुढवीओ । बहुनरयसंकुलाओ, घोराणलपज्जलन्तीओ ॥ ३८ ॥ दुगन्धा दुप्फरिसा, नरया ससि-सूरवज्जिया निच्चं । पुडपाय-कूडसामलि-करवसऽसिवत्तजन्ताई ॥ ३९ ॥ एएसु पावकम्मा, पक्खित्ता जीवहिंसया दीणा । चक्खुनिमिसं पि सोक्खं, न लहन्ति लभन्ति दुक्खाई॥१०॥ ते एरिसं महन्तं, दुक्खं पावन्ति विसयसुहलोला । ताणं चिय अप्पहियं, केरिसयं होइ पुरिसाणं? ॥४१॥ किम्पागफलसरिच्छं, विसयसुहं अप्पसोक्ख-बहुदुक्खं । अहियं वज्जेहि इम, करेहि ज तुज्झ अप्पहियं ॥ ४२ ॥ तेहि कयं अप्पहियं, जेहि उ गहिया महत्वया पञ्च । अहवाऽणुबयनिरया, सेसा दुक्खाणि पावन्ति ॥ १३ ॥ धम्म काऊण इह, पाविहिसि सुरालए परमसोक्खं । दुक्खं अणुहवसि चिरं, नरयम्मि गओ अहम्मेणं ॥ ४४ ॥ एए मया अणाहा, निचुबिम्गा भउद्या रणे । मा हणसु रसासत्तो, हिंसं तिविहेण वजेहि ॥ ४५ ॥ एएसु य अन्नेसु य, उवएससएसु बोहिओ नाहे । ताहे तुरङ्गमाओ, ओयरिउं पणमई साहु ॥ ४६ ॥ राजा उस साधुके पास जाकर कहने लगा कि तुम इस जंगल में क्या करते हो । (३२) तब उस श्रमण-सिंहने कहा कि मैं इस वनमें आत्माका कल्याण सोचता हुआ तथा दुःखका नाश करता हुआ बैठा हूँ। (३३) यह सुनकर राजाने पुनः पछा कि भोगसे रहित इस तरहकी अवस्थामें विद्यमान पुरुषको तो तनिक भी सुख नहीं है। तो फिर, हे साधो! तुम्हारी आत्माके कल्याणकी तो बात ही क्या ? (३४) राजाको विषयसुखकी ओर अभिमुख जानकर वह साधु सुन्दर शब्दोंमें कहने लगा कि तुम आत्महितके बारेमें जो पूछते हो वह सब मैं तुम्हें कहता हूँ। (३५) ___ जो विषयसुखमें आसक्त हैं वे आत्मसुखसे वंचित मूर्ख हजारों दुःख प्राप्त करके भवसागरमें भ्रमण करते हैं। (३६) इस शरीरके पोषणके लिए अनेक प्राणियोंका वध करके व जलमें लोहे के गोलेके भाँति सुखसे रहित वे नरकमें जायेंगे। (३७) हे नराधिप! अनेक नरकोंसे संकुल तथा भयंकर अग्नि जिसमें जल रही है ऐसी सात नरककी पृथ्वीओंको तुम सचमुच नहीं जानते । (३८) दुर्गन्धसे व्याप्त तथा असह्य वे नरक सर्वदा सूर्य एवं चन्द्रसे रहित होते हैं। उसमें पुटपाक, कूट शाल्मली जैसे पेड़ होते हैं, जिसके पत्ते करवत और तलवारके यंत्र सरोखे होते हैं। (३९) जीवकी हिंसा करनेवाले पापी और दीन जीव इन नरकोंमें फेंके जाते हैं। वहाँ वे चक्षुके निमेष जितने समयके लिए भी अर्थात् क्षणभरके लिए भी सुख प्राप्त नहीं करते, उन्हें दुःख ही मिलता है। (४०) विषयोंके सुखमें आसक्त वे ऐसा भयंकर दुःख प्राप्त करते हैं। ऐसे पुरुषोंका आत्महित कैसे हो सकता है? (४१) अल्प सुख एवं बहु दुःखवाला विषयसुख किंपाकवृक्षके फलके समान है। अतः तुम इस अहितकर पापका त्याग करो और तुम्हारो आत्माके लिए जो हितकर है वह करो। (४२) जिन्होंने पाँच महाव्रत ग्रहण किये हैं अथवा जो अणुव्रतमें निरत हैं वे ही आत्महित साधते हैं, बाकी तो दुःख प्राप्त करते हैं । (४३) इस भवमें धर्म करनेसे तुम देवलोक उत्तम सुख प्राप्त करोगे और अधर्म करनेसे नरकमें जाकर चिरकाल पर्यन्त दुःख अनुभव करोगे । (४४) ये असहाय मृग अरण्यमें भयसे त्रस्त होकर सर्वदा दुःखी रहते हैं। रसमें आसक्त तुम इन्हें मत मारो और मन-वचन-काया तीनों प्रकारसे हिंसाका त्याग करो। (४५) इन और ऐसे ही दूसरे सैकड़ों उपदेशोंसे जब वह बोधित हुआ तब घोड़े परसे नीचे उतरकर उसने साधुको प्रणाम किया। (४६) तब उसने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि मैं कृतार्थ हुआ हूँ और पापसे विमुक्त हुभा हूँ कि देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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