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३३. ३२]
३३. वजयण्णउवक्खाणं तो लक्षणो वलग्गो, नग्गोहं दीहविडववित्थारं । रामेण पुच्छिओ सो, किं पेच्छसि एत्थ सोमित्ति!? ॥ १८ ॥ सो भणइ देव वियर्ड, रूवं पेच्छामि पवयसरिच्छं । सत्ततलधवलएसु य, पासायसएसु परिकिणं ॥ १९ ॥ आरामुज्जाणेहि य, तलायसहसेहि वेढियं सयलं । धण-जणवयपरिहीणं, दीसइ नयर इमं वियर्ड ॥ २० ॥ एक पेच्छामि पूहू ! पुरिसं अइचवलतुरियगइगमणं । भणिओ य राघवेणं, आणेहि इमं मह समीवे ॥ २१॥ ओयरिय पायवाओ, सोमित्ती तेण आणिओ पुरिसो । रामस्स चलणजुयलं, नमिऊण ठिओ समन्भासे ॥ २२ ॥ तंभणइ पउमणाहो, भद्द! कओ आगओ सि? किं देसो। विजणो धणेण रहिओ? साहसु एयं फुडं मझं ॥ २३ ॥ सो भणइ सिरीगुत्तो, अहयं तु कुडुम्बिओ य वइएसो । एत्थागओ महाजस! भणामि जं तं निसामेहि ।। २४ ॥ सीहोदरो ति नाम, उज्जेणीसामिओ नरवरिन्दो । तस्स इह बज्जयण्णो, दसउरनयराहिवो भिच्चो ॥ २५॥ मोत्तण तिहयणगुरूं, निग्गन्था साहवो य नाणधरा । अन्नस्स नमोकार, न कुणइ सो चेव परिसस्स ॥ २६ ॥ निम्गन्थपसाएणं, सम्मत्तं वज्जयण्णनरवइणा । पत्तं जगविक्खाय, किं न सुर्य देव! तुम्हेहिं? ॥ २७ ॥ भणिओ य लक्खणेणं, केणोवाएण तेण सम्मत्त । लद्धं? कहेहि एत्तो, नायं मे कोउयं परमं ॥ २८ ॥ वनकर्णराजकथाएत्तो कहेइ पहिओ, देव! निसामेहि तरस साहूणं । दिन्नो जहोवएसो, पढम सम्मत्तरहियस्स ॥ २९ ॥ अह वज्जयण्णराया, पारद्धीफन्दिओ परिभमन्तो । पेच्छइ मन्दारण्णे, निग्गन्थं साहवं एक ॥ ३०॥ गिम्हे सिलायलत्थो, सूरायवसोसिएसु अङ्गेसु । सीहो ब भयविमुक्को, समत्तनियमो दढधिईओ ॥ ३१ ॥ वरतुरयसमारूढो, कयन्तसरिसो अणाइमिच्छत्तो । गन्तूण भणइ साहुँ, किं एत्थं कुणसि आरण्णे? ॥ ३२ ॥
इस पर लक्ष्मण बड़ी बड़ी शाखाओंके विस्तारवाले एक बड़के पेड़ पर चढ़ा। रामने उससे पूछा कि, हे सौमित्रि ! यहाँ तुम्हें क्या दिखाई देता है ? (१८) उसने कहा कि, देव। सात मंजलेवाले सैकड़ों सफेद महलोंसे व्याप्त कोई पर्वत जैसा भयंकर रूप दिखाई दे रहा है। (१९) बारा-बगीचे तथा सहस्रों सरोवरोंसे व्याप्त यह सारा नगर धन एवं जनसे शून्य होनेके कारण भयंकर मालूम होता है। (२०) हे प्रभो! अत्यन्त चपल और जल्दी जल्दी गमन करनेवाले ऐसे एक पुरुषको मैं देखता हूँ। इस पर रामने कहा कि उसे तुम मेरे पास लाभो । (२१) रामकी आज्ञाके अनुसार पेड़ परसे नीचे उतरकर लक्ष्मण उस पुरुषको ले आया। वह रामके दोनों चरणों में नमस्कार करके उनके पास खड़ा रहा । (२२) रामने उससे पूछा कि हे भद्र! तुम कहाँसे आये हो और यह देश जनशून्य तथा धनसे रहित क्यों है? मुझे यह साफ साफ कहो। (२३) तब श्रीगुप्तने कहा कि, हे महाशय ! मैं तो एक गृहस्थ और परदेसी हूँ। यहाँ आनेके बारेमें जो कुछ मैं कहता हूँ वह आप सुनें। (२४)
उज्जयिनीका स्वामी सिंहोदर नामका एक राजा है। दशपुर मगरका स्वामी वनकर्ण उसका अनुचर है। (२५) वह वजकर्ण त्रिभुवनके गुरु जिन भगवान् और ज्ञानी निर्ग्रन्थ साधुओंको छोड़कर अन्य किसी पुरुषको नमस्कार नहीं करता था । (२६) निर्ग्रन्थ साधुओंके प्रसादसे वनकर्ण राजाने सम्यक्त्व (सत्य दर्शन) प्राप्त किया, यह विश्वमें विख्यात है। हे देव! आपने क्या यह नहीं सुना ? (२७) इस पर लक्ष्मणने पूछा कि किस उपायसे उसने सम्यक्त्व प्राप्त किया है, यह मुझे कहो। मुझे इस बारेमें बहुत जिज्ञासा हो रही है। (२८) वह सुनकर पथिक कहने लगा कि, हे देव ! सम्यक्त्वसे हीन उसे साधुओंने जैसा उपदेश दिया था उसे आप सुनें । (२९)
एक दिन वनकर्ण राजा शिकारके लिए घूम रहा था, तब एक छोटे बनमें उसने एक निर्ग्रन्थ साधुको देखा। (३०) सूर्यकी धूपसे शोषित अंगवाला वह ग्रीष्मकालमें एक पत्थर पर बैठा हुआ था। वह दृढ़ धैर्यवाला सिंहकी भाँति निर्भय था और उसने अपना नियम परिपूर्ण कर लिया था। (३१) उत्तम घोड़े पर सवार और यमके जैसा अनादि-मिथ्यात्वी वह
१. रयणस-०। २. अणगारं-प्रत्य।
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