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________________ २६२ पउमचरियं [३३.३. पविसन्ति तावसकुलं, आसण-विणओवयारकुसलेहिं । संभासिया य पयया, सबेहिं तावसगणेहिं ॥ ३ ॥ वसिऊण तत्थ रयणी, पुणरवि वच्चन्ति अडविपहमग्गं । दूरुनयसिहरोह, पेच्छन्ति उ चित्तकूडं ते ॥४॥ नाणाविहदुमछन्नं, नाणाविहसावयाण आवासं । नाणापक्खिसमिद्धं, गिरिनइयारुद्धसंचारं ॥ ५॥ कत्थइ सीहवियारिय-गयवररुहिरच्छडारुणं भीमं । कत्थइ सरभुत्तासिय-हत्थिउलविभम्गतरुनिवहं ॥ ६॥ कत्थइ वराह-केसरिदढदप्पावडियजुज्झसंघट्ट । कत्थइ कढिणोरत्थल-वग्घचवेडाहयं महिसं ॥ ७ ॥ वाणरबुक्काररवं, कत्थइ किलिकिलिकिलन्तपक्खिगणं । कथइ सीहभयददुय-हरिणपलायन्तसंघायं ॥८॥ कत्थइ मत्तमहागय–गण्डालीणालिगुमगुमायन्तं । एयारिसविणिओगं, पेच्छन्ति य चित्तकूडं ते ॥ ९ ॥ नाणातरुब्भवाई, नाणाविहसुरहिगन्धकलियाई । खायन्ति जहिच्छाए, फलाइं वरसायकलियाई ॥ १० ॥ लीलाएँ वच्चमाणा. चउसु वि मासेसु साइरेगेसु । पत्ता अवन्तिविसयं, काणण-वणमण्डियं रम्मं ॥११॥ जण-धणसमाउलं ते, केत्तियमेत्तं पि वोलिया विसयं । अन्नं पुण उद्देस, पेच्छन्ति जणुग्झियं सहसा ॥ १२ ॥ वडपायवस्स हेट्टे, उवविट्ठाऽऽसासिया य वीसन्ता । भणिओ य राघवेणं, लक्खण ! देसो इमो विजणो ॥ १३ ॥ सासा अकिट्ठजाया, उज्जाणदुमा य फलभरोणमिया । पुण्डुच्छुवाडपउरा, गामा वि य पट्टणायारा ॥ १४ ॥ दीसन्ति सरा विउला, अछिन्नपउमुप्पला य पक्खीसु । सयडेसु भण्डएसु य, भग्गेसु विसंटुला पन्था ॥ १५ ॥ चणय-तिल-मुंग्ग-मासा, विक्खिरिया तन्दुला य णेगविहा । दीसन्ति बहुद्देसे, जिण्णा य जरग्गवो पडिया ॥ १६ ॥ भणिओ य राघवेणं, सोमित्ती, पट्टणं व गामं वा । लक्खेहि समन्मासे, परिसमिया दारुणं सीया ॥ १७ ॥ न जानेसे उसके रास्ते रुक गये थे और उसमें इकट्ठी की हुई समिधोंका ढेर लगा था । (२) ऐसे श्राश्रममें प्रवेश करने पर आसन, विजय एवं कुशलवादसे उनका सत्कार किया गया। उन्होंने सब तापसगणोंके साथ सावधानीसे बातचीत की। (३) वहाँ रात भर रहकर पुनः उन्होंने वनमार्गसे प्रयाण किया और अत्यन्त उन्नत शिखरोंके समूहवाले चित्रकूट पर्वतको देखा। (४) वह अनेक प्रकारके वृक्षोंसे ढका हुआ था। उसमें नाना प्रकारके पशुओंका आवास था। वह अनेक तरहके पक्षियोंसे समृद्ध था तथा पर्वतीय नदियोंके कारण वहाँ गति अवरुद्ध हो जाती थी। (५) कहीं कहीं वह सिंह द्वारा फाड़े गये उत्तम हाथीके रुधिरकी रेखाके कारण लाल होनेसे भयंकर लगता था। कहीं कहीं शरभसे पीड़ित हाथियों के समूहने बहुतसे वृक्ष तोड़ डाले थे। (६) कहीं पर अत्यन्त दर्पके कारण सूअर और सिंहमें युद्धका संघर्ष हो रहा था, तो कहीं पर बाघकी थापसे कठोर वक्षस्थलमें आहत भैंसा दिखाई पड़ता था। (७) कहीं पर वन्दर 'हुक हुक्' कर रहे थे, कहीं पर पक्षीगण चहचहा रहे थे, तो कहीं पर सिंहके भयसे हिरनोंका समूह भागा जा रहा था । (6) कहीं पर मदोन्मत्त बड़े बड़े हाथियोंके गण्डस्थलमें लीन भौरे गुनगुना रहे थे। इस प्रकारके वणेनवाला चित्रकूट पर्वत उन्होंने देखा । (९) वहाँ उन्होंने अनेक प्रक्षों पर उत्पन्न, नानाविध सुगन्धित गन्धसे युक्त तथा उत्तम स्वादवाले फल इच्छानुसार खाये । (१०) आरामके साथ कुछ अधिक चार मास तक परिभ्रमण करते हुए वे उद्यान एवं निकुंजोंसे अलंकृत तथा सुन्दर ऐसे अवन्ति देशमें आये । (११) जन एवं धनसे परिपूर्ण उस देशके कुछ भागोंसे गुजर कर उन्होंने सहसा लोगों द्वारा त्यक्त दूसरा प्रदेश देखा। (१२) बड़के पेड़ के नीचे बैठकर उन्होंने अपनी थकान दूर की और आराम किया। तब रामने लक्ष्मणसे कहा कि यह देश निर्जन है। अन्न खूब पैदा हुआ है, उद्यानके वृक्ष भी फलोंके भारसे मुके हुए हैं और ईखके खेतोंसे प्रचुर ग्राम भी नगरके आकारके जैसे बड़े बड़े हैं। पक्षियों द्वारा नहीं काटे गये कमलोंसे व्याप्त बड़े बड़े तालाब दिखाई देते हैं और टूटे हुए गहों तथा बर्तनोंसे मार्ग भरे हुए हैं। चने, तिल, मूंग, उर्द, तथा चावल जैसे अनेक प्रकारके धान्य बिखरे पड़े हैं और बहुतसे स्थानों पर अशक्त और बूढ़े बैल पड़े हुए हैं। (१३-१६) आगे रामने लक्ष्मणसे कहा कि पासमें कोई गाँव या नगर हो तो देखो। सीता बहुत थक गई है। (१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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