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________________ ३३..६२] ३३. बब्जयण्णउवक्खाणं २६५ तो भणइ कयत्थोऽहं, विमुक्कपावो न एत्थ संदेहो । जो सुर-नरसंपुज, साहुस्स समागमं पत्तो ॥ ४७ ॥ निम्गन्थाण महायस! दुक्करचरिया अहं पुण असत्तो । पञ्चाणुबयधारी, गिहत्थधम्मे अभिरमामो ॥ ४८ ॥ एवं रािहत्थधम्म, घेत्तण नराहिवो समुल्लवइ । जिणसाहवे पमोतुं, अन्नस्स सिरं न नामेमि ॥ १९ ॥ अह पीइबद्धणं सो, साह पूएइ परमभावेणं । उववासं चिय गिण्हइ, राया उल्लसियरोमश्चो ॥ ५० ॥ उववासियस्स साहू, कहेइ परमं हियं निययकालं । जं काऊण गिहत्था, भविया मुच्चन्ति दुक्खाणं ॥ ५१ ॥ सागार-निरागारं, चारित्तं दुबिहमेव उवइ8 | सालम्बणं गिहत्था, करन्ति साहू निरालम्बं ॥ ५२ ॥ पञ्च य अणुबयाई, सिक्खाओ तह य होन्ति चत्तारि । तिण्णि य गुणवयाई, जिणिन्दपूया य उवइट्टा ॥ ५३ ।। तो बज्जयण्णराया. जिणधम्मं गेण्हिऊण भावेणं । पविसरइ निययनयर, बहुजणपरिवारिओ तुट्ठो ॥ ५४ ॥ गमिऊण रयणिसमय, मज्जियजिमिओ मणेण चिन्तेइ । सीहोयरस्स विणयं, कह तस्स फुड करिस्से हैं? ॥ ५५ ॥ चिन्तेऊण सुमरिउँ, कणयमयं मुद्दियं इहऽङ्गुट्टे । कारेमि रयणचित्तं, सुबयजिणबिम्बसन्निहियं ॥ ५६ ॥ सा नरवईण मुद्दा, कारावेऊण दाहिणङ्गट्टे । आविद्धा राएणं, हरिससमुल्लसियगत्तेणं ॥ ५७ ॥ सीहोयरस्स पुरओ, काऊणऽङ्गट्टयं निययसीसे । पणमइ जिणिन्दपडिम. ससंभमो लोगमज्झम्मि ॥ ५८ ॥ परिमुणिय कारणेणं, केणइ वइरीण साहिए सन्ते । दसउरवइस्स रुट्ठो, गाढं सीहोयरो राया ॥ ५९ ॥ तो सबबलसमग्गो, माणी सन्नद्धबद्धतोणीरो । चलिओ दसउरनयरं, उवरिं चिय वज्जयण्णस्स ॥ ६० ॥ ताव च्चिय तुरियगई, वेणुलयागहियकरयलो पुरिसो । गन्तूण वज्जयण्णं, भणइ तओ मे निसामेहि ॥ ६१ ॥ अणमोकारस्स पहू ! रुटो सीहोयरो सह बलेणं । आगच्छइ तुरन्तो, तुज्झ वहत्थं सवडहुत्तो ।। ६२ ।। एवं मनुष्यों द्वारा पूजनीय साधुका समागम मुझे प्राप्त हुआ है। (४७) हे महाशय! निम्रन्थोंकी दुष्कर चर्याके लिए मैं असमर्थ है, अतः पाँच अणुव्रतको धारण करनेवाले गृहस्थके धर्ममें मुझे अभिरुचि है। (४८) इस प्रकार गृहस्थ धर्मको अंगीकार करके राजा वनकर्णने कहा कि जिन और साधुओंको छोड़कर मैं किसीको सिर नहीं झुकाऊँगा। (४९) उस राजाने अत्यन्त भावपूर्वक प्रीतिवर्धन साधु की पूजा की और आनन्दसे रोमांचित उसने एक उपवास ग्रहण किया। (५०) साधुने उपवासित राजाको सार्वकालिक परम हित, जिसका आचरण करके गृहस्थ एवं भव्य जीव दुःखोंसे छुटकारा पाते हैं, का उपदेश दिया। (५१) दो प्रकारके चरित्रका उपदेश दिया गया है: १-सागार, और २-अनगार। गृहस्थ आलम्बनयक्त (अपूर्ण) और साधु आलम्बनसे रहित (पूर्ण) चरित्रका पालन करते हैं । (५२) उसने पाँच अणुव्रत, चार गुणब्रत और तीन शिक्षाव्रत तथा जिनेन्द्रोंके पूजनका उपदेश दिया । (५३) अनेक लोगोंसे घिरे हुए और तुष्ट उस राजाने भावपूर्वक जिनधर्म अंगीकार करके अपने नगरमें प्रवेश किया। (५४) रात्रिका समय व्यतीत करके तथा स्नान एवं भोजन करके वह मनमें सोचने लगा कि उस सिंहोदरका आज्ञापालन मैं किस प्रकार अच्छी तरहसे कर सकूँगा ? (५५) सोचने पर उसे याद आया कि मैं इस अंगूठे पर रत्नोंसे चित्रविचित्र और सबत जिनके बिम्बसे युक्त ऐसी एक सोनेकी अंगूठी बनवाऊँ। (५६) मुद्रा बनवाकर हर्षसे पुलकित गात्रवाले राजाने अपने दाहिने अंगूठे पर वह पहनी । (५७) सिंहोदरके समक्ष लोगोंके बीच घबराहट के साथ अपने अंगूठेको मस्तक पर ले जाकर जिनेन्द्रकी प्रतिमाको प्रणाम किया। (५८) किसी शत्रु द्वारा कहे गये इस प्रकारकी घबराहटके कारणको सुनकर सिंहोदर राजा दशपुरके नरेश वनकर्ण पर अत्यन्त रुष्ट हुआ। (५९) तब शस्त्रोंसे लैस हो तथा तरकस बाँधकर वह मानी राजा समग्र सैन्यके साथ वनकर्णके दशपुर नगर पर आक्रमण करनेके लिए चला । (६०) इस बीच हाथमें बेंत धारण किये हुए एक शीघ्रगामी पुरुषने वकणेके पास जाकर कहा कि आप मेरी बात सुनें (६१) नमस्कार न करनेसे रुष्ट सिंहोदर राजा सैन्यके साथ तुम्हारे वधके लिए इस भोर जल्दी-जल्दी आ रहा है। (६२) तुम्हारे किसी शत्रु द्वारा इस प्रकार १. बन्दणपूया-मु.। ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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