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पउमचरियं
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कोवं च उवसमेउं, पणमिय पियरं परेण विणएणं । आपुच्छइ दढचित्तो, सोमित्ती अत्तणो जंणणी ॥ संभासिऊण भिच्चे, वज्जावत्तं च धणुवरं घेत्तुं । घणपी संपत्तो, पउमस्यासं समल्लीणो ॥ पियरेण बन्धवेहि य, सामन्तसएस पैरिमिया सन्ता । रायभवणाउ एत्तो, विणिग्गया सुरकुमार च ॥ सुयसोगतावियाओ, धरणियलोसित्तअंसुनिवहाओ । कह कह वि पणभिऊणं, नियत्तियाओ य जणणीओ काऊ सिरपणा, नियत्तिओ दसरहो य रामेणं । सहवड्डिया य बन्धू, कलुणपलावं च कुणमाणा ॥ पन्ति एकमेक, एस पुरी नइ वि जणवयाइण्णा । जाया रामविओए, दीसह विझाडवी चेव ॥ लोगो वि उस्सुयमणो, जंपइ धन्ना इमा जणयधूया । जा वच्चइ परदेसं, रामेण समं महामहिला ॥ नयण नलसित्तगत्तं, पेच्छय जणणि इमं पमोत्तूर्णं । चलिओ रामेण समं, एसो च्चिय लक्खणकुमारो ॥ तेसु कुमारेसु समं, सामन्तजणेण वच्चमाणेणं । सुन्ना साएयपुरी, जाया छणवज्जिया तइया ॥ न नियत्तइ नयरजणो, धाडिज्जन्तो वि दण्डपुरिसेहिं । ताव य दिवसवसाणे, सूरो अत्थं समल्लीणो ॥ नयरीऍ मज्झयारे, दिट्ठं चिय जिणहरं मणभिरामं । हरिसियरोमञ्चइया, तत्थ पविट्टा परमतुट्ठा ॥ थोऊण अचिऊण य, जिणपडिमाओ परेण भावेणं । तत्थेव सन्निविद्या, समयं चिय नणसमूहेणं ॥ ते तत्थ वरकुमारा, बसिया सोऊण ताण जणणीहिं । आगन्तूण जिणहरे, दोहिं वि पुत्ता समागूढा सबाण वि सुद्धीणं, मणसुद्धी चेव उत्तमा लोए । आलिङ्गइ भत्तारं भावेण ऽन्त्रेण पुत्तं च ॥ तेहि समं ताओ, सम्मन्तेऊण पडिणियत्ताओ । डोलावियहिययाओ, इयसमी उवगयाओ ॥ नमिऊण य भत्तारं, भणन्ति रामं ससीय-सोमित्तिं । पल्लवेहि महाजस! मा उबेयं कुणसु धीर ? || १२५ || तो भइ दसरनिवो, न य मे इह अस्थि किंचि सायत्तं । जं जस्स पुबविहियं तं तस्स नरस्स उवणमइ ॥ १२६ ॥ शान्त करके और अत्यन्त विनयके साथ पिताको प्रणाम करके दृढ़चित्त लक्ष्मणने अपनी माता सुमित्रासे अनुज्ञा माँगी । (११० ) भृत्योंके साथ बातचीत करके तथा वज्रावर्त धनुषको लेकर अत्यन्त प्रीतियुक्त वह राम के पास गया । (१११) पिता, बन्धुजन तथा सैकड़ों सामन्तासे घिरे हुए वे राजभवनमें से देवकुमारकी भाँति निकले । (११२) पुत्रोंके शोक सन्तप्त और आँसुओं से जमीनको भिगोनेवाली माताओंको प्रणाम करके किसी तरह उन्हें लौटाया । (११३) मस्तकसे प्रणाम करके दशरथको तथा करुण रुदन करनेवाले साथ में हो बड़े हुए बन्धुओंको रामने लौटाया । (११४) लोग एक दूसरेसे बातें करते थे कि यद्यपि यह नगरी जनपद से परिपूर्ण है, फिर भी रामके वियोगसे विन्ध्याटवी की भाँति दिखाई पड़ती है । (११५) उत्सुक मनवाले लोग कहते थे कि यह महान् नारी सीता धन्य है जो रामके साथ परदेश जा रही है । (११६) देखो, यह लक्ष्मण कुमार भी आँसुओं से भीगे शरोरवाली माताका परित्याग करके रामके साथ चल दिये हैं । (११७) उस समय उन कुमारोंके साथ सामन्तजनोंके जाने से साकेतपुरी उत्सवरहित शून्य नगरी सी हो गई । (२१८) दण्डधारी पुरुषों (पुलिस) द्वारा भगाये जाने पर भी नगरजन वापस लौटते नहीं थे । उस समय दिवसका अवसान होने पर सूर्य अस्त हुआ। । (११९) नगरीके बीच उन्होंने एक मनोरम जिनमन्दिर देखा । हर्पसे रोमांचित और अत्यन्त तुष्ट उन्होंने उसमें प्रवेश किया । (१२०) जिन प्रतिमाओंकी अत्यन्त भावपूर्वक स्तुति एवं पूजा करके जनसमुदायके साथ वे वहीं बैठे । (१२१) वे कुमारवर वहाँ ठहरे हैं ऐसा सुनकर दोनों माताएँ जिन मन्दिर में आई और पुत्रोंका आलिंगन किया । (१२२ ) जगत् में सब शुद्धियों की अपेक्षा मनःशुद्धि उत्तम है । उत्तम भाव के साथ पति एवं पुत्रको आलिंगन किया । (१२३) पुत्रोंके साथ बातचीत करके कम्पित हृदयवालीं वे वापस लौटीं और पतिके पास आई । (१२४) पतिको नमस्कार करके उन्होंने कहा कि हे महाशय ! सीता एवं लक्ष्मणसे युक्त रामको लौटा लो। हे धीर ! इसमें उद्वेग मत करो । ( १२५ ) इस पर दशरथने कहा कि इसमें मेरा कुछ भी सामर्थ्य नहीं है। जो जिसके लिए पूर्व से विहित है वह उस मनुष्यको प्राप्त होता है । (१२६) राज्यभारसे १. जमणि - प्रत्य० | २. परिश्ता इत्यर्थः । ३. घणकणा इण्णाप्रत्य० 1 ४. पईसमीवं - प्रत्य० ।
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